गीत 2
क्लेशों का हर कल्मष हर लो,
बरसाओ रस-धारा।
स्वागत है, हे नव संवत्सर!
सौ-सौ बार तुम्हारा।
पूरब में प्रकटे सूरज की कुछ ऐसी अरुणाई।
जागे जिसे देखकर सोये भारत की तरुणाई।
छिन्न-भिन्न हो क्रूर विचारों,
कुण्ठाओं के कारा।1
हृदय-सरोवर में सद्भावों के सरसिज मुस्काएँ।
मन-मानस से तमस, तनावों की, जो दूर भगाएँ।
गली-गली महके जीवन की,
महके हर चौबारा।2
प्रान्त-प्रान्त में सुलग रही अलगावों की चिनगारी।
कातर दृग से देख रही है मातृभूमि बेचारी।
समाधान दो, यह चिनगारी
बने नहीं अंगारा।3
राजनीति कर रही कलंकित सारी धर्म-ध्वजाएँ।
तोड़ रहे हैं धर्म-धुरन्धर शाश्वत परम्पराएँ।
तुम्हीं पतन के इस युग में
प्राणों का बनो सहारा।4
जीवन-मूल्यों की गिरती जाती है नित्य प्रतिष्ठा।
विहँस रही वंचना चतुर्दिक, सिसक रही है निष्ठा।
संहारो अन्याय, अनय तुम,
लेकर कुलिश-कुठारा।5
प्राणों में विलसे आशाओं की हँसमुख हरियाली।
जीवन के संकल्प सजाएँ वैभव की दीवाली।
कर्तव्यों के प्रति प्रमाद तज
जाग उठे जग सारा।6
इस धरती का कोई मानव रहे न भूखा-नंगा।
दहे दैन्य,दारिद्र्य परस्पर, बहे प्रेम की गंगा।
गौरव का शिरमौर बने
फिर भारत देश हमारा।7