धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

आर्यावर्त्त के सदृश भूगोल में दूसरा कोई देश नहीं है  

ओ३म्

संसार में अनेक देश है जिनकी कुल संख्या 195 है। इनमें से कोई भी देश मानवता की दृष्टि, ईश्वर व आत्मा के ज्ञान सहित भारत के स्वर्णिम अतीत व वर्तमान की तुलना में महत्वपूर्ण नहीं है। महर्षि दयानन्द ने अपने विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में लिखा है आर्यावर्त्त देश ऐसा देश है जिसके सदृश भूगोल में दूसरा कोई देश नहीं है। इसीलिये इस भूमि का नाम सुवर्णभूमि है क्योंकि यही सुवर्णादि रत्नों को उत्पन्न करती है। इसीलिये सृष्टि की आदि में आर्य लोग (आर्यावर्त्त के प्रदेश तिब्बत से सीधे) इसी (निर्जन) देश में आकर बसे।’ ऋषि दयानन्द जी यह भी लिखते हैं कि आर्य नाम उत्तम पुरुषों का है और आर्यों से भिन्न मनुष्यों का नाम दस्यु है। जितने भूगोल में देश हैं वे सब इसी देश की प्रशंसा करते और आशा रखते हैं कि पारसमणि पत्थर सुना जाता है, वह बात तो झूठी है परन्तु आर्यावर्त्त देश ही सच्चा पारसमणि है कि जिसको लोहेरूप दरिद्र विदेशी छूते के साथ ही सुवर्ण अर्थात् धनाढ्य हो जाते हैं। अपने विचारों के समर्थन में ऋषि दयानन्द ने मनुस्मृति का एक श्लोक उद्धृत किया है। श्लोक है एतद्देशप्रसूतस्य सकाशाद् अग्रजन्मनः। स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः।।’ इस श्लोक का अर्थ व इसमें कही गई बातों की पृष्ठ भूमि पर प्रकाश डालते हुए ऋषि दयानन्द ने लिखा है कि सृष्टि से ले के पांच सहस्र वर्षों से पूर्व समय पर्यन्त आर्यों का सार्वभौम चक्रवर्ती अर्थात् भूगोल में सर्वोपरि एकमात्र राज्य था। अन्य देशों में माण्डलिक अर्थात् छोटे-छोटे राजा रहते थे क्योंकि कौरव पाण्डव पर्यन्त यहां के राज्य और राजशासन में सब भूगोल के सब राजा और प्रजा चले थे क्योंकि यह मनुस्मृति जो सृष्टि की आदि में हुई है उस का प्रमाण है। इसी आर्यावर्त्त देश में उत्पन्न हुए ब्राह्मण अर्थात् विद्वानों से भूगोल के मनुष्य ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, दस्यु, म्लेच्छ आदि सब अपने-अपने योग्य विद्या चरित्रों की शिक्षा और विद्याभ्यास करें। और महाराजा युधिष्ठिर जी के राजसूय यज्ञ और महाभारत युद्धपर्यन्त यहां के राज्याधीन सब राज्य थे।

आर्यावर्त्त अर्थात् भारत अतीत में तो विश्व का गुरु और संसार का सबसे उत्तम देश था ही, अनेक विशेषताओं के कारण यह आज भी विश्व का सर्वोत्तम देश है। हां, यह स्वीकार करना पड़ता है कि इस देश में अविद्या से प्रभावित मत-मतान्तरों ने इस देश की प्राचीन श्रेष्ठता को निम्नतर या न्यून किया है। भारत में छः ऋतुएं होती हैं जो संसार के किसी देश में नहीं होती। यह भी एक कारण है। इससे भी अधिक महत्वपूर्ण भारत संसार का सबसे प्राचीन राष्ट्र है। भारत वा आर्यावर्त्त देश का इतिहास कुछ सौ या हजार वर्षों का नहीं है, जैसा कि संसार के अन्य देशों का है, अपितु भारत का इतिहास 1.96 अरब वर्ष पुराना है। भारत में पांच हजार वर्ष पूर्व महाभारत का युद्ध हुआ था। जिसका वर्णन ऋषि वेदव्यास रचित महाभारत ग्रन्थ में मिलता है। आज भी यह ग्रन्थ सुरक्षित है और इसके अनेक संस्करण व टीकायें मिलती हैं। जिस समय महाभारत युद्ध हुआ था उस समय भारत सहित विश्व में सर्वत्र वैदिक मत प्रचलित था। बौद्ध, जैन, ईसाई व इस्लाम मतों की उत्पत्ति तब नहीं हुई थी। वर्तमान में विश्व में प्रचलित सभी मत, पन्थ, सम्प्रदाय, धर्म या मजहब महाभारत के बाद उत्पन्न हुए हैं। महाभारत का युद्ध लगभग पांच हजार दो सौ वर्ष पूर्व हुआ था। महाभारत से भी न्यूनतम 8.62 लाख पूर्व भारत भूमि में मर्यादा पुरुषोत्तम राम का जन्म हुआ था। अयोध्या उनकी जन्म भूमि है। उन्होंने लंका के राजा रावण को युद्ध में पराजित किया था और भारत में वेद की मान्यताओं पर आधारित विश्व का श्रेष्ठतम राज्य स्थापित किया था जिसे रामराज्य के नाम से जाना जाता व याद किया जाता है। रामायण व महाभारत काल तथा सृष्टि के आरम्भ से लेकर महर्षि दयानन्द तक भारत भूमि में ऋषि, योगी, मुनि, यति, महात्मा, महापुरुष, देव, देवियां आदि बड़ी संख्या उत्पन्न होते रहे जिनके कारण भारत भूमि स्वर्ग व देवभूमि थी।

सृष्टि के आदि काल में मनुष्यों की उत्पत्ति भी तिब्बत में हुई थी। यह तिब्बत तब आर्यावर्त्त का भाग होता था। समय के साथ इतिहास व भूगोल बदले और कुछ शताब्दियों पूर्व तिब्बत व आर्यावर्त्त के बहुत से भाग भारत के नियन्त्रण से जाते रहे। इसका कारण ऋषि दयानन्द ने महाभारत के विनाशकारी युद्ध को माना है। ऋषि दयानन्द की यह बात है भी प्रामाणिक। इसलिये प्रामाणिक है कि इसके अतिरिक्त देश के पतन का और कोई कारण दृष्टिगोचर नहीं होता। आदि सृष्टि तिब्बत में होने के बाद परमात्मा ने संसार को चलाने के लिए मनुष्यों को वेद ज्ञान प्रदान किया था। यह वेद ज्ञान ही संसार की सभी भाषाओं सहित ज्ञान व विज्ञान का आदि कारण है। वेद संस्कृत में हैं और संस्कृत भाषा विश्व की सभी भाषाओं जननी व माता के समान है। यदि मां न हो तो सन्तान नहीं हो सकती। इसी प्रकार यदि संस्कृत रूपी मां न होती तो संसार की कोई भी भाषा अस्तित्व में नहीं आ सकती थी। वेद ज्ञान से हमारे सृष्टि के आदिकालीन ऋषि व राजा, अग्नि, वायु, आदित्य, अंगिरा, ब्रह्मा, महाराज मनु आदि पूर्ण वेदज्ञानी हुए। सम्भावना है कि सृष्टि की आदि में हुए इन्हीं मनु महाराज ने भारत को मनुस्मृति जैसा राजधर्म व धर्म शास्त्र दिया था। इसके बाद समय समय पर वेद ज्ञान पर आधारित ऋषियों द्वारा आवश्यकता के अनुरूप अनेक ग्रन्थों की रचना होती गई। मुगलों ने भारत पर आक्रमण कर हमारे तक्षशिला व नालन्दा आदि अनेक विश्वविद्यालयों के साहित्य को अग्नि की भेंट चढ़ा दिया था तथापि सौभाग्य से आज भी हमारे पास ब्राह्मण ग्रन्थ, दर्शन, उपनिषद्, आयुर्वेद, ज्योतिष, गृह्य सूत्र आदि विस्तृत साहित्य उपलब्ध होता है। इस वैदिक साहित्य में ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, व्यवहारभानु आदि अनेक ग्रन्थ लिखकर वैदिक साहित्य को समृद्ध किया है। भारत में यह जो धार्मिक व दार्शनिक साहित्य है, ऐसा साहित्य विश्व में कहीं पर नहीं रचा गया। विश्व को यदि सही अर्थों में मानवीय मूल्य सहित सद्धर्म पर आधारित विश्व बनाना है तो बिना वेद व वेदानुकूल वैदिक साहित्य से विश्व में सच्चे मनुष्यों का निर्माण जो सच्चे ईश्वर उपासक, देशभक्त व विद्या अविद्या को जानने वाले हों, करना सम्भव नहीं है।

आज भी भारत के पास धर्म व दर्शन के वह ग्रन्थ है जिनकी संसार के साहित्य से कोई समानता नहीं है। यह ग्रन्थ निर्भ्रान्त ज्ञान से प्रतिपादक ग्रन्थ हैं। इस ज्ञान से मनुष्य धर्म अर्थ काम व मोक्ष प्राप्त कर अपने जीवन को सफल कर सकते हैं। आज संसार में सर्वत्र अपसंस्कृति का प्रचार हो रहा है। इसका समाधान भी वेद व वैदिक संस्कृति के द्वारा ही हो सकता है। वेद और वैदिक साहित्य मनुष्य को सही मायने में पूर्ण अहिंसक बनाते हैं। अहिंसा का अर्थ है कि अकारण किसी भी प्राणी को कष्ट न दिया जाये। वैदिक धर्मी किसी भी प्राणी को अकारण कष्ट नहीं देते परन्तु वह देश व समाज की रक्षा व उसके प्राकृतिक धर्म जो कि वेद धर्म है, की रक्षा के लिए अपने प्राणों की बाजी लगा सकते हैं। वेद मनुष्यों को अपने कर्तव्यों की पूर्ति के लिए अपना बलिदान करने की प्रेरणा देते हैं। वेद कहते हैं भूमि मेरी माता है और मैं पृथिवी माता का पुत्र हूं। वेद मनुष्य को कायर नहीं अपितु बलवान्, शूरवीर व पराक्रमी बनने का सन्देश देते हैं। वैदिक विद्वान डा. रामनाथ वेदालंकार ने वैदिक वीर गर्जना नाम से वेद मन्त्रों की सूक्तियों का चयन कर उनके हिन्दी अर्थों से सुशोभित एक पुस्तक की रचना की है जिससे वैदिक वीर का जीवन व चरित्र कैसा होता है, इस पर प्रकाश पड़ता है। अन्य अनेक ग्रन्थ भी सभी मनुष्यों के कर्तव्यों का विधान करते हैं। क्षत्रियों का कार्य देश व समाज की रक्षा का होता है। वह किसी भी कीमत पर अपने कर्तव्य का निर्वाह करते हैं। इतिहास में इसके अनेक उदाहरण मिलते हैं।

ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश के ग्यारहवें समुल्लास में आर्यावर्त्त को विश्व का ऐसा देश कहा है जिसके सदृश दूसरा कोई देश नहीं है। इस एकादश समुल्लास से पूर्व के दस समुल्लासों में वैदिक धर्म, सस्कृति व वैदिक दर्शन के आधार पर ईश्वर, जीव व प्रकृति सहित अनेक गहन विषयों पर जिन सिद्धान्त व वैदिक मान्यताओं का ऋषि दयानन्द जी ने प्रकाश किया है, उन सिद्धान्तों व मान्यताओं से उनके समय का भारतीय एवं विश्व समाज परिचित नहीं था। सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम दस समुल्लास पढ़कर हमें भारत विश्व का सर्वोत्तम देश प्रतीत होता है। वैदिक धर्म में ईश्वर व जीवात्मा की अमरता व सृष्टि के प्रवाह से अनादि होने सहित पुनर्जन्म व कर्मफल का जो तार्किक व दाशर्निक सिद्धान्त है, वह संसार की सभी पूंजी, धन व सम्पदाओं से बढ़कर है। संसार में आध्यात्मिक व सामाजिक सत्य ज्ञान से बढ़कर कोई सम्पदा नहीं हो सकती। वैदिक आध्यात्मिक, सामाजिक सत्य सिद्धान्तों व वैदिक नित्य कर्म-कर्तव्यों के कारण ही भारत आज भी निश्चय ही विश्व का अनुपम व अत्युत्तम देश है।

भारत के सदृश आज भी विश्व का कोई देश नहीं है। ऐसा इस देश में वेद, दर्शन, उपनिषद, रामायण, महाभारत, मनुस्मृति, आयुर्वेद, योग, ज्योतिष आदि अनेकानेक ग्रन्थों व उनका अध्ययन कर उसके अनुसार जीवन व्यतीत करने वाले व्यक्तियों के कारण से है। भारत की एक विशेषता इस देश का योगियों का देश होने के कारण से है। आज भी इस देश में स्वामी रामदेव एवं स्वामी सत्यपति जी सहित अनेकानेक योगी व वेदों के विद्वान हैं। जब तक भारत के पास वेद व इसके विद्वान तथा वेदों का अध्ययन करने वाले आर्यसमाज के अनुयायी हैं, भारत विश्व में प्रमुख देश बना रहेगा। इसके साथ भारत के नागरिकों में जो अविद्या आदि के कारण अनेक बुराईयां आ गई हैं उनका निराकरण भी होना चाहिये। देश में विद्यमान अविद्या देश के लिए कलंक है। स्वामी दयानन्द जी ने व उससे पूर्व हमारे दर्शनकारों ने इस ओर ध्यान दिलाया था। यदि भारत से अविद्या दूर हो जाये तो भारत की सभी समस्याओं का निदान हो सकता है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए सत्यार्थप्रकाश व उसकी शिक्षाओं के प्रचार व प्रसार की आवश्यकता है। भविष्य में क्या होगा कोई नहीं जानता? हम और गिरेंगे या उठेंगे, यह भविष्य की बात है, जिसका किसी को ज्ञान नहीं है। मनुष्यों का अधिकार कर्तव्य पालन में हैं। सभी सत्य को जाने और उसे जीवन में धारण करें तथा दूसरों को भी उसे अपनाने की प्रेरणा करें। समाज, देश व विश्व के सुधार का यही मंत्र है। ओ३म् शम्।

 — मनमोहन कुमार आर्य