पीड़ा
पीड़ा पारावार हुई है,
टूटे उर तंत्री के बंधन ।
समय व्याध तू गर रुक जाता !
तो यह निर्मम क्षण न आता ।
तूने युगल न तोड़ा होता –
तन्हा क्रौंच न अश्रु बहाता ।
कवि मन सुन सुन कर व्याकुल है,
शोक विकल विरही का क्रंदन ।
पीड़ा पारावार…………………..
टूटे सपने काँच सरीखे ।
चुभते मेरे तन में, तीखे।
उर की कठिन वेदना से फिर,
गीत बनाने मैनें सीखे ।
पीड़ा के पथ पर दौड़ाये ,
मैंने अपने मन के स्यंदन ।
पीड़ा पारावार…………….
अति अभाव में कुटज रहा मैं।
कुंजर तोड़ा जलज रहा मैं ।
मैं गमले का फूल नही हूँ ,
मरुथल वन का वनज रहा मैं ।
खुले हृदय से किया हमेशा ,
कठिन समय का भी अभिनंदन।
— डॉ. दिवाकर दत्त त्रिपाठी