लेख– राजनीति, घोटाले औऱ चुनाव का कॉकटेल बनता देश
तत्कालिक दौर में संसदीय लोकतंत्र की फ़ज़ीहत किसी देश में हो रही है। तो वह हमारा देश है। संसद में जनसरोकार की पैरवी होना जो शून्य में लीन हो रहीं। सार्थक बहस का अभाव संसद में स्पष्ट दिखता है। भ्रष्टाचार दूर करने का दावा सरकारें पेश करती हैं, लेकिन कामयाब होती नहीं। खुशहाली के मामले में देश पिछड़ता जा रहा। योजनाएं समय पर पूर्ण होती नहीं। ग़रीबी घटने के बजाय बढ़ती जा रहीं। अमीरी की छांव सिर्फ़ कुछ हिस्सों तक सीमित रह गई है। देश में बीपीएल कार्ड धारकों की संख्या लगभग 22 फ़ीसद है। उसमें भी स्थिति निचले तबके की दयनीय है, क्योंकि अनुसूचित जातियों औऱ अनुसूचित जनजातियों में क्रमशः बीपीएल कार्ड धारकों की संख्या लगभग 45 फ़ीसद और 31 फ़ीसद बताई गई है। यह स्थिति बयां करती है, कि आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी सामाजिक श्रेणीबद्धता आर्थिक स्थिति का निर्धारण करती है। जो लोकतांत्रिक व्यवस्था का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है। औऱ इसे दूर करने का भगीरथ प्रयास कोई करता दिखता नहीं। फ़िर राजनीतिक गलियारों में बात चाहें सत्ता पक्ष की हो, या विपक्ष की, या बनते बिगड़ते तीसरे मोर्चे की। किसी के पास समेकित विकास औऱ भ्रष्टाचार मुक्त भारत बनाने की कोई संजीवनी दिखती नहीं।
ऐसे में आज के दौर में यह कहने में तनिक भी गुरेज़ नहीं होना चाहिए, कि देश में सरकारों की सफ़लता की कसौटी बेहतर शासन-प्रशासन की व्यवस्था नहीं, लोगों को बेहतर जीवनशैली उपलब्ध कराना न होकर सिर्फ़ चुनाव या उपचुनाव जीतना भर नैतिक जिम्मेदारी बनकर रह गई है। आज के लोकतांत्रिक परिवेश के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती यहीं है, कि रहनुमाई व्यवस्था सत्ता की कुंजी हथियाने के लिए साम, दाम, दंड औऱ भेद रूपी तरकश के सभी तीर छोड़ देती है, लेकिन शासन-प्रशासन में सुधार की तरफ़ सपने में भी ध्यान देना उचित नहीं समझती हैं। आज समाज में नैतिक आचरण क्षीण हो रहा। तो इसका बड़ा कारण यही है, कि नेताओं के पास एक दूसरे के ऊपर ज़ुबानी तीर छोड़ने के अलावा समय ही नहीं मिलता, कि बढ़ते घोटालों औऱ बिगड़ते सामाजिक परिवेश पर कुछ बोल सकें। या उससे निपटने का कोई उपाय कर सकें।
भ्रष्टाचार के क्षेत्र में देश नित नए कीर्तिमान स्थापित कर रहा है। घोटाला करने वालों के नाम प्रतिदिन सुर्खियां बनने लगे हैं। लेकिन देश को इन घोटालेबाजों से कैसे सुरक्षित बनाया जाएं। इस पर सब मौन हैं। ऐसे में ग़रीब तबक़े के लोगों के साथ उस संवैधानिक देश में सब कुछ ठीक नहीं हो रहा। जहां के संविधान में समानता और स्वतंत्रता जैसे शब्दों की बात की गई है। जब ग़रीबो, किसानों औऱ छात्रों को पढ़ाई के लिए बैंक स्व कर्ज़ बड़ी मुश्किल से मिल पाता है, और चुका न पाने की स्थिति में उसका सब कुछ नीलाम कर दिया जाता है। तो इसका मतलब साफ़ है, ये सब घोटालेबाजी का खेल किसी न किसी के शह पर हो रहा है, क्योंकि जब कर्ज़ तथाकथित लोगों पर बढ़ जाता है तब तक नाम नहीं आता। जब ये सब कुछ चट करके नाक के नीचे से निकल जाते हैं, तभी नाम उज़ागर क्यों होता है। विजय माल्या औऱ ललित मोदी तो भ्रष्टाचार के क्षेत्र में भीष्म पितामह बन चुके हैं, क्योंकि अब नित नए नाम पर से पर्दा हट रहा है। अब तो इन नामों की एक लंबी फेहरिस्त तैयार हो गई है। अवाम भी यहीं सोचती होगी, किन किन के नाम याद रखें। मेहुल चौकसे, नीरव मोदी देश को लुटकर इंग्लैंड जा बैठे हैं, तो भूपेश जैन एक हज़ार करोड़ का घोटाला कर मॉरीशस में मौज कर रहा है, औऱ देश की ग़रीब अवाम दो वक़्त की नमक रोटी के लिए हाथ फ़ैलाकर इधर- उधर घूम रही। आख़िर ये कैसी अजीबोगरीब लोकतांत्रिक स्थिति है।
पहले लोग घर को लुटते थे, अब बड़े- बड़े लोग देश के बैंको को लूट रहे, औऱ व्यवस्था सिर्फ़ तमाशा देख रही। यह बडी चिंतनीय बात है। आज बडे-बड़े कारोबारी देश को चुना लगाकर विदेश में अपना आश्रय बना लेते हैं, क्योंकि उन्हें पता है की देश में ऐसा कोई उपबन्ध नहीं। जिससे देश से भागे किसी घोटालेबाज को वापस लाया जा सकें। इसलिए बैंकों को चूना लगाना अब आसान खेल इन बड़े खिलाड़ियों के लिए बनता जा रहा है। सत्ता पक्ष के साथ विपक्ष भी अब हर क्षण चुनावी मूढ़ में रहने लगा है। राजनीतिक दल एक-दूसरे की कमजोरी देख उन पर कीचड़ उछालने का काम करने लगे हैं। शासन – प्रशासन में क्या खामियां है। इसे बिसार दिया गया है। अगर देश में ऐसे ही घोटालेबाजी की दुकान चलती रहीं, तो वह दिन दूर नहीं, जब विदेशी निवेश भारत को मिलना बंद हो जाएगा। वर्तमान समय में स्थितियां ऐसी नहीं, कि सिर्फ़ हथियार ख़रीदकर देश महान बन जाएगा। उसके लिए जरुरी है, कि देश के लोगों और सत्ता संचालकों में ईमानदारी औऱ सामाजिक उत्थान का भाव हो। घोटालेबाज देश के लिए आस्तीन के सांप के समान है। जिससे देश को पीछा छुड़ाने में ही भलाई है। इन घोटालेबाज लोगों पर अंकुश पाने के लिए कठोर सज़ा और ब्याज़ सहित राशि वसूलने की तरफ़ देश को बढ़ना चाहिए। आज से लगभग तीन दशक पूर्व राजीव गांधी ने कहा था, कि केंद्र से चलने वाला एक रुपए गांव तक पहुँचते- पहुँचते 15 पैसे रह जाता है। तो बदलाव तो इसमें भी लाना होगा, क्योंकि जब पैसे का समुचित प्रवाह देश के अंतिम व्यक्ति तक होगा नहीं, फ़िर ख़ुशहाली कैसे सबके जीवन में घुल पाएगी।