लेख– नाम नहीं महापुरुषों के आदर्श से नाता जोड़ें सियासतदां
सामाजिक व्यवस्था से वर्ग विभेद आज़ादी के सत्तर वर्षों बाद भी नहीं मिट सका। इसका उत्तरदाई कौन है। शिव, सत्ता और सियासत में फंसा सियासतदार, क्योंकि नेता किसी दल का हो। वह जाति-धर्म के बुलबुले को हवा तो देता है सत्ता हथियाने के लिए, लेकिन वर्ग विभेद को समाज से दूर करने का तनिक भी प्रयास नहीं करता। यह बात हमारे देश के बारे में काफ़ी पहले से कहीं जाती है, कि यहाँ पर सामाजिक पिछड़ापन और आर्थिक वंचना एक-दूसरे से तारतम्यता रखती हैं। पर शायद इसे दूर करने का बलवती प्रयास हमारे नीति-निर्माता करते नज़र नहीं आते। आएं भी कैसे उन्हे तो फ़िक्र अपने राजनीतिक वजूद का रहता है। जिसके लिए उन्हें आसरा सिर्फ़ शिव औऱ सियासत का होता है। इसके साथ अगर उसमें जातिवादी राजनीति काम आ जाएं, तो कहावत ही चरितार्थ हो जाएं, हल्दी लगे न फिटकरी रंग चोखा वाली। ऐसे में आज की राजनीति से सवाल तो बहुतेरे हैं, मग़र उनका उत्तर देने के लिए अग्रिम पंक्ति में कोई शायद नज़र नहीं आता। वैसे आज के दौर में देश में नाम परिवर्तन की बहार चल रहीं है, तो तनिक महापुरुषों के विचारों पर भी अमल तो होना चाहिए। आरक्षण ने भी आज के दौर में सामाजिक स्थिति को बिगाड़ने का बेड़ा अपने सिर पर उठा लिया है। ऐसा इसलिए क्योंकि जिन लोगों को आरक्षण मिल गया। वे सामाजिक परिवेश में अच्छी स्थिति प्राप्त करने के बाद भी उसके फ़ायदे ले रहें, और कुछ तो ऐसे हैं। जो आरक्षित श्रेणी में होने के बाद भी ग़रीबी झेल रहे।
ऐसा क्यों हो रहा, नीतियों में विसंगतियों के कारण। समीक्षात्मक कार्रवाई न होने के कारण। आरक्षण की समीक्षा क्यों नहीं हो रही, क्योंकि मत तंत्र में फ़िक्र सभी को मत की है, मतदाता की नहीं। सबसे बड़ा दुर्भाग्य यहीं है। कुछ वक्त से देश में नाम परिवर्तन की राजनीति काफ़ी हिचकोले मार रही है। जैसे धर्म औऱ जाति की राजनीति कुछ समय पहले उफ़ान पर रहती थी। ऐसा नहीं जाति-धर्म की राजनीति ख़त्म हो गई, पर कमतर जरूर पड़ी है। तो उसकी जगह अब नाम परिवर्तन की राजनीति जोर पकड़ रही। स्वतंत्रता सेनानियों के नामों, देश मे सड़कों और शहरों के नामों में बदलाव की बहार सी आ गई है। इन नाम परिवर्तनों से भावनात्मक खेल खेलने की कोशिश की जा रहीं, क्योंकि वास्तविकता में समावेशी विकास करने में तो राजनीतिक दलों की नसें फूलने लगती है। कुछ समय पूर्व शहीद भगत सिंह का शहादत दिवस था। उस दिन किसी राजनीतिक दल ने उन्हे दबे-कुचलों का मसीहा कहकर उन्हें अपने पाले में लाने की कोशिश की, किसी ने उन्हें देशभक्ति का परवाना बताकर उनके बारे में क़सीदे पढ़कर अपने मतपेटी को सुदृढ़ करने की कोशिश की।
इतना ही नहीं लिस्ट काफ़ी विस्तृत है, नाम पर राजनीति करने की। ऐसे में दुःख यहीं होता है, जब राजनीति किसी स्वतंत्रता सेनानी या महापुरुष के नाम पर होती है, क्योंकि जब लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजनीति विचारों से चलती है। फ़िर किसी के विचार को भूलकर नाम की राजनीति से क्या फ़ायदा होगा अवाम का। ज़िले और सरकारी नीतियों का नाम परिवर्तित करने तक मामला ठीक था, लेकिन अब यह कारवां आगे निकल चुका है। ताज़ा मामला उत्तरप्रदेश से जुड़ा है, जहां पर डॉक्टर भीमराव अंबेडकर के नाम के साथ रामजी जोड़ दिया गया है। अब आख़िर रामजी शब्द जोड़ने से समाज औऱ अंबेडकर जी को क्या फ़ायदा होगा। अम्बेडकर की पहचान पहले से बनी-बनाई हुई है, उसमें राम जोड़ने या न जोड़ने से कोई असर नहीं पड़ने वाला। इस नाम और धर्म की राजनीति से आगामी समाज और वर्तमान का आख़िर क्या भला होगा। भला तो बेहतर शिक्षा, रोजगार की उपलब्धता, और बेहतर और उन्नतिशील सामाजिक जीवन से होगा। तो पहली प्राथमिकता इन सियासतदानों की यह होनी चाहिए, कि स्वतन्त्रता सेनानियों और महापुरुषों के विचारों को ख़ुद जिएं, और समाज को भी उस पर चलने के लिए प्रेरित करें। आज के समाज को ऐसी ज्ञान की ज्योति उपलब्ध कराएं, कि वर्षों से चली आ रही जाति परम्परा और धार्मिक कट्टरता विखण्डित हो सके। आज सिर्फ़ महापुरुषों की भूमि के नवयुवक बेरोजगार ही नहीं, उनकी भूमि सामाजिक परिवेश में जातिवादी और धार्मिक कट्टरता की आड़ में रक्तरंजित हो रही।
अगर सच्चें अर्थों में डॉक्टर अम्बेडकर, महात्मा गांधी और भगत सिंह जैसे महान आत्माओं को हमारी राजनीति आदर्श और प्रेरणा स्रोत्र मानती है, तो फ़िर क्यों अंत समय में जातिवादी और धर्म की बैसाखी पर चुनाव जीतने के लिए आश्रित हो जाती है। अगर हम सिर्फ़ भीमराव अंबेडकर के जीवन दर्शन को उठाकर देखें, तो उन्होंने अपना पूरा जीवन दलित, पिछड़ों को सम्मान की जिंदगी मुहैया कराने में गुजार दिया। लेकिन आज के दौर में अम्बेडकर को अपना आदर्श मनाने वाली राजनीतिक पार्टियां अगर सिर्फ़ उनके नाम पर मत की उगाही करने में लगी है, तो यह विश्वासघात है उनके विचारों के साथ। उनके व्यक्तित्व के साथ। इतना ही नहीं जो आज अम्बेडकर के नाम के साथ रामजी जोड़कर उन्हें अपने पाले में लाना चाह रहे हैं, नियत तो उनकी भी ठीक नहीं। उनके विचारों से तालमेल तो उनका भी नहीं, क्योंकि सर्वसमाज की उन्नति की बात तो करते हैं, लेकिन वायदे से आगे कुछ मामूल पड़ता नहीं। इनके राजनीतिक कर्म भी वास्तव में दलितों को हिक़ारत की नज़र से देखती है। ऐसा इसलिए क्योंकि कुछ वर्षों में दलितों पर अत्याचार बढ़े हैं, तो बीपीएल कार्ड धारकों की संख्या में भी इज़ाफ़ा राष्ट्रीय स्तर से काफ़ी अधिक अनुसूचित जातियों और जनजातियों में देखा जा रहा। जो यह बताने के लिए काफ़ी है, कि कमज़ोर वर्ग का उत्थान नहीं हो पा रहा। अगर आज़ादी के सात दशक बाद भी सामाजिक कुरीतियों से देश आज़ाद हो नहीं सका है। भ्रष्टाचार और बेरोजगारी की बेल मजबूत होती जा रहीं, तो इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा देश का। जब अपनाना हमारे रहनुमाओं को महापुरुषों और स्वतंत्रता सेनानियों के विचारों को था। उस दौर में उनके नाम को अपने सांचे में फिट करके राजनीति को धार दिया जा रहा। आज के दौर में भारतीय लोकतंत्र का दम इसलिए घूट रहा, क्योंकि जाति-धर्म की बेल अमरबेल बनती जा रहीं। वह तभी टूट सकती है, जब महापुरुषों के नाम पर राजनीति न होकर उनके विचारों और कर्मों पर राजनीति आगे बढ़ें। तो सही अर्थों में अगर लोकतंत्र को मजबूत बनाना है, तो महापुरुषों के विचारों पर राजनीति करनी होगी, उनके नाम पर नहीं।