“कुंडलिया”
“कुंडलिया”
मन में आग धधक रही, जल जाता वन बाग
गर्मी से राहत कहाँ, तरह तरह चित राग
तरह तरह चित राग, विराग हुई खग मैना
चित कत मिले विराम, आराम नहिं जिय नैना
कह गौतम कविराय, प्राण पति बसता धन में
मूरख चेत निदान, विधान बना नहिं मन में।।
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी