धूमिल चाँद
रात पूर्णिमा ,झंझा आया ,
धूमिल उजला चाँद हो गया ।
कुछ सपनों के चित्र सुनहरे ।
मेरे उर पट पे थे ठहरे ।
जब इस उर पे चोट लगी तो,
घाव हुए कुछ ऐसे गहरे ।
फिर पीड़ा का बादल बरसा ,
उर पट के सब चित्र धो गया ।
धूमिल उजला……………..
रिश्तों के विश्वास खो गये ।
प्रेम भरे अहसास खो गये ।
पछतावे की पीर बची है ,
सारे सफल प्रयास खो गये ।
यादों को सिरहाने रखकर ,
उथल पुथल के बीच सो गया।
धूमिल………………………….
कंकरीट के बिखरे जंगल ।
भूल गया तू वन, जमीन ,जल।
कहीं प्रलय की नींद न टूटे,
मत कर मानव इतनी हलचल।
कहीं काल ऐसा न कह दे ,
मानव का अस्तित्व खो गया ।
——–© डॉ. दिवाकर दत्त त्रिपाठी