पता नहीं
तुमसे हुई बात,
वो पहली शाम
ना जान कर पहचान तो की,
इतना हीं तो कह पाई थी
जानना नहीं था,,,,
पर….
बस इतना सा
समझ सकी थी तुम्हें
कि शायद !
“पता नहीं”
ये पहली मुलाकात दोस्ती बन जाती है
यूँ लाँखों की भीड़
एक तेरा मिलना
ना कोई मतलब न जरूरी
फिर ये कैसा इत्तेफाक !
हमारी दोस्ती !
पता नहीं..
जब तुमसे बातें करती
खुद को समझ पाती
जब साथ रहती
अपने दिल,दिमाग को अपना जान पाती हूँ
बस अब तक इतना पहचान सकी हूँ
पर क्यूँ…
ये भी पता नहीं ।
— उमा मेहता त्रिवेदी