ग़ज़ल
सर्द रातों में माहताब भी काँपने लगा,
सुबह सिकुड़ने लगी आफताब हाँपने लगा।
कोहरे की फैली घनी चादरों के आगे,
कुदरत का सारा हिसाब काँपने लगा।
डंक सी मारती सर्द हवाओं की लहर,
कलियों की हालत पर गुलाब हाँफने लगा।
कोहरे ने जब अपना रौद्र रुप पकड़ा तो,
कहर को अब मौसम खराब झाँकने लगा।
कोहरे के आगोश में लुत्फ उठाते रहे ‘अयुज’
जिन्दगी में छाया तो रंग-ओ-आब काँपने लगा।