खून-पसीना
बड़े-बड़े अर्थशास्त्र रचे जाते हैं
सिर्फ उसके बल से
लुटे-पिटे देश विकसित हो जाते हैं
सिर्फ उसके बल से
वो खेतों से लेकर
बड़ी-बड़ी फैक्ट्रीयों में बहा देता है
खून और पसीना एक साथ
उसके खून और पसीने को
लोग बेच-बेच कर बन जाते हैं
अडानी, अम्बानी, टाटा-बिड़ला
पर वो
बेचारा वो ही रहता है
भूखा, नंगा, बीमार, बूढ़ा मजदूर…
सुबह से शाम
दिन और रात
वो स्वयं की हड्डी पीसता है
तब जाकर कोई देश चलता है
वो भले ही सीमा पर लड़ने नहीं जाता
लेकिन उसी के बल पर बड़ी-बड़ी लड़ाईयां लड़ी जाती हैं
और जीती भी जाती हैं |
बेशक ! उसका नाम नहीं होता
परन्तु जीत के जश्न का सच्चा हकदार तो
वो ही होता है
जिसे हम मजदूर कह कर हाशिए पर खड़ा कर देते हैं
और वो बेचारा चुपचाप
खून-पसीना बहाता रहता है… |