शब्द बन रहूँगी
हूँ तो सही…
ढ़ूढ़ो तो यहीं-कहीं
पता है यहीं हूँ
ना दूर-दराज,दिन-दोपहर
सुबह-शाम,ज़मी-ऑसमा ।।
हूँ तो सही…
बन धरा पे धरणी
हर परिकल्पना मे…
एक कल्पना कोरी-कोरी
हर पन्नों पर छाई
वो तरूणाई सामने आई
कभी आड़ी तो तिरछी
नीली कभी लाल श्याही
हर लाईन पूरी लिखती
वहीं तो विस्तृत श्रृंखला बन उकेरी
विस्मय कर वात्सल्य सुनाती ।।
हूँ तो सहीं….
एक लकीर बन
कभी चुप तो तन्हा
शौर कभी बरखा
कहती रहूँगी सदा
जब तक पता पक्का हो
जान लो पहचान भी लो ।।
हूँ तो सहीं….
उजास बन कर
दीप प्रज्वलित करती
लौ बन उदीप्त करती
हर बूंद बन
रंगों को रंगीन कर
मिल-जुल कर घूलती रहूँगी
बैठ इन्द्रधनुष,
झुला उस बाँहो का बनूँ
हर बार सवर,
लिख जरूर जाऊँगी
पता तो करो…।।
हूँ तो सहीं….
एक कहकहीं
जिसमें चिड़ियों की चहक
पोखर की वो महक
गिरते झरने की खनकार
उड़ती फूहार की तरह
चैहरे का वो पानी ।।
हूँ तो सहीं….
सिर्फ़ तुम बन….
एक अमी-सा अमृत
वहीं एहसास बन कर
बसी रहूँगी साँसें बन
तुम फिर भूल
जानना तो चाहोगे
बस इतना जानती हूँ
धागा जो तेरी हर एक यादो और बातों से बाँधती हूँ ।।
हूँ तो सहीं….
बस…वहीं सही
ढूँढों तो यहीं-कहीं ।
हूँ..तो सही..!
— उमा मेहता त्रिवेदी