कविता- बेफिक्रे
ना किसी के जाने का डर
ना रूठने मनाने की चिंता
ना किसी को पाने व्याकुल
ना खोने से दुश्वार जीवन
थकना हारना दूर था
अपनो पर ऐतबार था
बेफिक्री के आलम थे
बेफिक्रे थे जब हम ।
गाने बैठे गीत फागुन
मिल गयी धुन सरगम
शब्द जोड़ते जाते नूतन
जमाने का डर ना ही
ठोकर की चिंता
घंटो बतियाते सखियों संग
बेफिक्री के आलम थे
बेफिक्रे थे जब हम ।
चलते थे बेधड़क
बोलना था बेझिझक
सामने से लात घूसे
तीखे तीरों की बरसात
दूसरे मुहल्ले की राजकुमारी
अपने गली के शेर थे
बेफिक्री के आलम थे
बेफिक्रे थे जब हम ।
खुलकर दांत निकालना था
गुस्से में चिल्लाना था
नन्हे हाथो में आसमां
चाँद के लिए सीढ़ियां थी
रेत का घर भी अपना था
कागज़ की नाव अपनी थी
बेफिक्री के आलम थे
बेफिक्रे थे जब हम ।
बेईमानी में खुशी मिलती
कपट बहुत दूर ही था
सारे खेल की रानी थे
राजा बन अधिकारी थे
ना कोई ऊंची जाति का
ना कोई नीची जाति का
बेफिक्री के आलम थे
बेफिक्रे थे जब हम ।
खिलखिलाता बचपन था
मदहोशी से सावन थे
अब ना वैसी नियत है
ना अब घरों में जन्नत है
वो भी क्या दिन थे
मनमानी के आशियाने थे
बेफिक्री के आलम थे
बेफिक्रे थे जब हम ।
मस्त मलंग फिरते थे
गिरते उठते संभलते थे
बर्फ के गोले सा गम था
खुशी बारिश सी लगती थी
वो भी क्या दिन थे
पुलकित सारे नजारे थे
बेफिक्री के आलम थे
बेफिक्रे थे जब हम ।
लेखिका/कवियत्री – जयति जैन ‘नूतन’, भोपाल ।