प्रेरणा बन चली आना
कहीं खोया है उत्साह मेरा
कहीं खोई है मन की आशा।
उमड़-घुमड़ कर चली आई है
बादल बनकर ढेर निराशा।
कविताएं भी शुष्क हुई हैं
निष्प्राण सा हुआ हूं मैं।
चाहतें भी हो रहीं हैं गुम
अब प्रेरणा बन चली आओ तुम।
प्रेम से सूना है जग मेरा
नीरस हुआ है मेरा सवेरा।
कल्पनाएं भी अब खोने लगीं हैं
रचनाएं कहीं सोने लगीं हैं।
जीवन में नहीं बची कोई आभा
जैसे तुम बिन हूं मैं आधा।
मुस्कुराते हुए उदास हूं मैं
जैसे बिनु प्राण के श्वास हूं मैं।
जग के मेले में अकेला हूं
बस कल्पनाओं में ही खेला हूं ।
रंग-बिरंगी दुनिया में
मेरा जीवन क्यों है सादा।
रंगों की लेकर फुहार
चली आओ बनकर राधा।
कैसे कहूं कहां-कहां हूं ढूंढ रहा
कितने सारे चेहरों में
मैं तुमको हूं ढूंढ चुका।
अब बस करो तुम तड़पाना
चली आओ छोड़ के बरसाना
प्रेम की गंगा बहाकर तुम
मेरी कविताओं में ही बस जाना।
बस प्रेरणा बनकर रहना तुम
मेरी जीत बनकर आना
आओ जो कभी जीवन में
मुझे छ़ोड न फिर तुम जाना।।
— मुकेश सिंह
सिलापथार,असम।
9706838045