लेख– कतार में ख़ड़े बेरोजगारों के बारे में कब सोचेंगी रहनुमाई व्यवस्था
पकौड़े तलना ही शायद देश के पढ़े-लिखें एक बड़े हिस्से का दस्तूर बनता जा रहा। ऐसा इसलिए क्योंकि आज डिग्री की क़ीमत सिर्फ इतनी ही रह गई है, कि उसे या घर की दीवारों पर टांग दिया जाएं, या फ़िर उस पर पोहा-समोसा खाकर फेंक दिया जाए। तो शायद कोई फ़र्क नहीं पड़ने वाला है। बेरोजगारी किसी भी देश के विकास में सबसे बड़ा रोड़ा बनकर उभर रही है। शायद उस चक्र में हमारा देश भी फंस गया है। जिस हिसाब से हमारे देश में शिक्षित बेरोजगार बढ़ रहें, वह एक भयावह स्थिति उत्पन्न करता हैं। वैसे अगर आज देश में बेरोजगारी बढ़ रही। तो उसके पीछे कई कारण हैं। देश में शिक्षा प्रणाली का लचर हो जाना, छोटे उद्योगों का नष्ट होना। सामाजिक प्रतिष्ठा का नौकरी से जुड़ जाना। साथ में कृषि क्षेत्र की तरफ़ से युवाओं का रुख़सत होना है। इन कारणों के अलावा तेज़ी से बढ़ती जनसंख्या बेरोजगारी की दर बढ़ाने में महती भूमिका अदा कर रहीं। ऐसा नहीं बेरोजगारी के जंजाल से युवा पीढ़ी को निजात दिलाने का प्रयास नहीं हो रहा। सरकारी प्रयास हो रहा है। पर मुकम्मल अंजाम तक पहुँच नहीं पा रहा है। जिसका मुख्य कारण योजनाओं का उचित तरीक़े से क्रियान्वयन न होना है। बढ़ती जनसंख्या के दौर में इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि हर शिक्षित को सरकारी नौकरी नहीं दी जा सकती। आज औद्योगिक क्षेत्र में वृद्धि दर काफ़ी कम है। जिस कारण इस क्षेत्र में रोजगार की संभावनाएं सीमित हो चली हैं। इसके अलावा कुटीर उद्योगों में उत्पादन गिरता जा रहा। जिससे कई लोग रोजगार से हाथ धो बैठे हैं। ऐसे में सरकार को बेरोजगारी दूर करने के लिए स्वरोजगार को प्रोत्साहित करना होगा। हां स्वरोजगार ऐसा जो, जो सिर्फ़ रहनुमाई व्यवस्था कागज़ पर अपनी पीठ थपथपाने के लिए न चलाए। स्वरोजगार चलाने के लिए युवाओं को दिशा-निर्देश देने वाली एक कमेटी का गठन होना चाहिए। जिससे उन्हें अपना कारोबार शुरू करने से पहले यह ज्ञान प्राप्त हो सकें, कि किस हिसाब से व्यापार आदि करना बेरोजगारों के लिए लाभदायक हो सकता है। साथ ही साथ वह कमेटी उन्हें ऋण उपलब्ध कराने से लेकर स्वरोजगार शुरू करने में भी मदद करें।
डिग्री आज के दौर में मात्र कागज़ का टुकड़ा मात्र बनकर रह गई है। यह कहा जाएं तो अतिश्योक्ति नहीं होगी, क्योंकि आज स्थितियां ही कुछ ऐसी निर्मित हो चली है। कोई भी डिग्री हो, चाहें दस लाख वाली, या एक लाख वाली युवाओं को नौकरी के क़ाबिल नहीं बना पा रहीं हैं। आज हम उस दौर से गुज़र रहें हैं, जहां कुछ समय में अगर यह कॉलेज और विश्वविद्यालयों में लिखा दिया जाए, कि इस पढ़ाई से नौकरी लगेगी। इसकी इच्छा न करें। तो यह ताजुब वाली बात नहीं होनी चाहिए। आज देश में नौकरियों की घटती संख्या और बेरोजगारों की बढ़ती तादाद चिंता का विषय बनते जा रही। पर शायद हिन्दू-मुस्लिम की राजनीति करने वाली राजनीतिक व्यवस्था को इससे कोई फ़र्क पड़ता नहीं। तभी तो देश भर में बेरोजगार युवकों की गूंज सदन तक पहुँचती नहीं। एक आंकड़े के मुताबिक देश में प्रति वर्ष 1 करोड़ तीस लाख युवा नौकरी पाने के लिए कतार में ख़ड़े होते हैं, लेकिन मुश्किल से 46 फ़ीसद लोगों को नौकरी प्राप्त हो पाती है। स्थिति तो बदत्तर तब मामूल पड़ती है, जब पता चलता है, कि 84 फ़ीसद युवा मुफ़्त में होने वाली इंटर्नशिप के लिए तैयार रहते हैं, लेकिन उनमें से सिर्फ़ 37 फ़ीसद युवा बेरोजगारों को शुरुआती दौर में मुफ़्त में सीखने का मौका मयस्सर हो पाता है। इसके अलावा अगर इंडिया स्किल रिपोर्ट की मानें, तो देश में प्रति वर्ष 15 लाख युवा इंजीनियरिंग पास होकर कॉलेजों से निकलते हैं। जिनमें से सिर्फ़ 52 फ़ीसद को रोजगार मिल पाता है। ऐसे में यह सहज रूप से समझा जा सकता है, जब व्यवसायिक प्रशिक्षण प्राप्त करने वालों के लिए नौकरियों के लाले पड़े हैं, तो सामान्य रूप से स्नातक और परास्नातक करने वालों को तो नौकरी मिल ही नहीं रही होगी। ऐसे में देश का बेरोजगारी की तरफ़ कूच कर जाना स्वाभाविक है।
भारतीय शिक्षा प्रणाली अगर युवाओं को नौकरी करने के क़ाबिल नहीं बना पा रही, तो शायद खोट हमारी शिक्षा प्रणाली में ही है। जहां पर किताबी ज्ञान को ज्यादा महत्व दिया जाता है। उस दौर में जहां पर प्रैक्टिकल ज्ञान की मांग काफ़ी बढ़ गई है। आज के वक़्त में युवाओं में कौशल का होना बहुत आवश्यक है। ऐसे में अगर देखा जाए, तो डिजिटल इंडिया को बढ़ावा देने वाली रहनुमाई व्यवस्था को पहले देश की शिक्षा व्यवस्था में व्याप्त खामियों को दूर करना होगा। आज अगर हम देश की शिक्षा व्यवस्था पर नज़र दौड़ाएं तो पता चलता है। शिक्षा रूपी नींव की आधारशिला ही सही तरीक़े से नहीं रखी जाती, फ़िर नौकरी रूपी मकान कैसे खड़ा हो सकता है। बच्चों को शुरुआती दौर से ही रट्टू तोता बना दिया जाता है, और भारी-भरकम किताबों के बोझ तले दबा दिया जाता है। ऐसे में सवाल यहीं जब हमारी गुरुकुल परम्परा और आज के वक्त में विदेशी शिक्षा पद्धति में विषय विशेष की शिक्षा प्रायोगिक माध्यम में शुरू से दी जाती है। फ़िर हमारे देश में दसवीं तक सभी के लिए एक जैसा पाठ्यक्रम क्यों? क्यों शिक्षा के क्षेत्र में व्याप्त कमियों को दूर नहीं किया जा रहा। नवीन पाठ्यक्रमों की मांग वर्षों से उठ रही। उस पर अमल करती रहनुमाई व्यवस्था क्यों नहीं दिखती। कॉलेजों की संख्या में बढ़ोतरी और वहां पर सुविधाएं सरकारें क्यों नहीं बढ़ाती? अगर आज हमारे देश में एक रिपोर्ट के मुताबिक एक लाख छात्रों पर सिर्फ़ 28 कॉलेज हैं। फ़िर कैसे युवाओं को बेहतर और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिल सकती है। वैसे भी जिस हिसाब से बजट का सिर्फ़ 4 फ़ीसद के करीब रहनुमाई व्यवस्था शिक्षा व्यवस्था पर ख़र्च करती है। उसे देखकर उसकी नियत का पता चलता है, कि वह युवाओं को रोजगार दिलाने के लिए कितनी सहज और कर्तव्यपरायण है। ऐसे में अगर देश की एक भी यूनिवर्सिटी विश्व वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग 2018 में शामिल नहीं। तो उसमें सुधार करना होगा। तभी युवाओं को देश में रोजगार और नौकरी के काबिल बनाया जा सकता है। वरना वे सडक़ पर धरना देकर राजनीति करने वालों के हाथों ठगे जाते रहेंगे।
बड़ा अच्छा खयाल है