मासूम दर्द
न जाने क्या था उन आंखों में समझ नही पाई
अभी इंसानो की भाषा समझ रही थी
वो हैवानियत की भाषा पढ़ नही पाई
कहना चाहती तो थी मगर कुछ कह नही पाई
नासमझी के आंसुओं से आंखें भर आईं
समझ ही नही आया क्या हो रहा था मेरे साथ
ये बाबा की मुस्कान और प्यार भरी थपकी तो नही थी
कुछ दर्द भरा,मगर दर्द भी किसी को कैसे समझाती,
समझाने के लिए लफ्ज़ भी तो नही थे, न काबिलियत
ख़ुद जो समझ नही पा रही थी वो माँ को कैसे बताती,
अभी तो अपनों को समझने की कोशिश कर रही थी
उन हैवानों कैसे समझ पाती
— सुमन शाह (रूहानी)