सामाजिक

लेख– हम अपना धैर्य क्यों खो रहें?

आज राजनीति सिर्फ़ अपना राजधर्म नहीं भूल गई है। तो मानव समाज मानवता का पाठ भी बिसार रहा है। मानवीय मूल्य और संवेधनाएँ तितर-बितर हो रही है। जिस कारण विश्व गुरु और आधुनिक बनने का दम्भ भरने वाला आध्यात्मिक और गंगा-जमुनी सभ्यता वाला हमारा देश लाल और हरे में बांटा जा रहा है। दुःख तो जब होता है, कि इस बंटवारे में हिस्सेदार सिर्फ़ राजनीतिक हलकों के लोग शामिल नहीं। अब समाज के लोग भी वैसी ही मानसिकता के शिकार हुए जा रहें। यहां पर सवाल हम सिर्फ़ समाज के लोगों से पूछ सकते हैं। आख़िर वे क्यों इतने निकृष्ट हुए जा रहें। जिसके आगे मानवतावादी दृष्टिकोण यह भीख मांगने पर विवश हो रहा, कि उसे आधुनिक होता समाज बख़्श दे। यहाँ राजनीतिज्ञों से प्रश्न इसीलिए नहीं खड़ा किया, क्योंकि उन्होंने तो शायद अपने को समझ लिया है, कि सत्ता में आने के बाद वे ही इस धरा के भाग्य-विधाता बन बैठे हैं। जाति-धर्म के धधकते शोले उनपर असर नहीं कर सकते। आज हमारी सामाजिक स्थिति बिगड़ रही है। इसका सबसे बड़ा कारण यह है, कि धर्म को सियासतदानों ने खिलौना बना दिया है। राजनीतिक पार्टियां अब सर्वसमाज की बात न करके धर्म और जाति विशेष की बात करने लगी हैं। जिस कारणवश हमारी सामाजिक व्यवस्था खोखली होती जा रहीं है।

बीते दिनों पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने हमारे समाज का ध्यान एक ऐसे विषय की तरफ़ आकर्षित किया। जिसपर विचार-विमर्श और उससे निदान की रामबाण औषधि हमारे प्राचीन समय में सोने की चिड़िया कहलाने वाले देश के बुद्धिजीवियों और रहनुमाओं को एक संग बैठकर ढूढ़ना होगा। वरना हमारी सामाजिक अधोसंरचना खंड-खंड हो सकती है। जिसका फ़ायदा बाहरी ताक़तें उठा सकती हैं। आज हमारा देश सिर्फ़ आतंकवाद से पीड़ित नहीं, न ही सिर्फ़ आंतरिक दर्द से कराह रहा। वह तो एक नए तरीक़े के रोगाणु से पीड़ित हो उठा है, जिसका वाहक राजनीति बनी है, और राजनीति को ही इस रोग का उपचार आगे बढ़कर ढूढ़ना होगा। चंडीगढ़ के पंजाब विश्वविद्यालय में आयोजित पहले प्रोफेसर एसबी. रँगनेकर स्मृति व्याख्यान में पूर्व प्रधानमंत्री ने कहा कि हम अपना धैर्य खोते जा रहें हैं। उनकी इस बात के सियासी निहितार्थ हो सकते हैं, और हो भी क्यों न। राजनीति ही ऐसी आज के वक्त में हमारे देश की हो चली है, जो हर बात में अपना हित देखने लगी है। सामाजिकता, समाजवाद, मूल्य और नीति तो अब राजनीति के समकक्ष बौने जो पड़ गए हैं। पर पूर्व प्रधानमंत्री की बात आज की परिस्थितियों से मेल खाती है, क्योंकि हमारा समाज और हम जिस हिसाब से अपने लोगों के प्रति ही उग्र होते जा रहें। वह बड़ी सामाजिक विपदा का रूप लेती जा रहीं। जिस बात का ज़िक्र पूर्व प्रधानमंत्री ने व्याख्यान में किया। अगर उसे एहसास किया जाएं। तो वह सहज ही दिख सकता है। आज के दौर में सड़क से लेकर संसद तक अजीबोगरीब स्थिति नज़ीर के रूप में परिलक्षित हो रहीं है। आज धैर्य रूपी चिड़िया समाज से ही उड़न-छू नहीं हो रही। राजनीतिक परिवेश में भी कुछ ऐसा ही माहौल दीगर हो रहा है। धैर्य और सहनशीलता का वजूद अगर उस देश में ख़त्म हो रहा। जो आध्यात्म और अनेकता में एकता का पक्षधर रहा है। तो यह गम्भीर समस्या है। लोकतांत्रिक देश और समाज के लिए। हमारे समाज में तो ऐसे महापुरुष भी हुए हैं, जो एक गाल पर किसी के मारने पर दूसरा गाल भी उसकी तरफ़ करने की वकालत करने वाले रहें हैं।

फ़िर हम अपनों के लिए उस सीख को क्यों भूल रहें। जिस धैर्य के कमजोर होने या ढ़हने की बात पूर्व प्रधानमंत्री ने बीते दिनों की। अगर उसको उदाहरण के रूप में समझने की कोशिश करें। तो छोटी सी बात पर किसी की हत्या कर देना, रिश्ते-नाते की बेल का कमजोर पड़ना, संवेदनहीनता का परम सत्ता तक पहुँचना, और आपसी प्रेम के साथ भाईचारे जैसे मूल्यों का दरक जाना है। जिस सहनशीलता, दया, सेवाभाव और उदारता की पूरे विश्व में कुछ समय पूर्व तूती बोलती थी, और सेवाभाव जैसे सदाचार विश्व के अन्य देश भारत से सीखने की बात करते थे। अगर उसी देश में वर्तमान स्थिति ऐसे दौर से गुजर रही, कि अपने लोगों को ही धर्म-जाति और मज़हब के नाम पर बांटा जा रहा। धर्म के नाम पर, मज़हब के नाम पर मौत का खेल शुरू हो गया है। छोटी-छोटी बात पर रोडरेज की घटनाएं हो रहीं। झूठी शान-शौक़त के नाम पर लोगों को मारा-काटा जा रहा। ट्रेनों में तनिक सा विवाद हो जाने की स्थिति में हत्या हो जाना इस दिशा में संकेत कर रहीं, कि समाज में अधीरता काफ़ी बढ़ती जा रही। जिसकी सबसे ज़्यादा शिकार युवा पीढ़ी हो रहीं। वैसे देखा जाएं, तो जिस विषाणु की चपेट में हमारा देश पड़ गया है। अगर उसपर तत्काल असर करने वाली एंटीबायोटिक नहीं ढूंढी गई, तो इसका आने वाले समय में समाज पर व्यापक नकारात्मक असर पड़ेगा। साथ में देश धीरे-धीरे अंदर से खोखला होता जाएगा।

आज जैसी परिस्थिति निर्मित हो रही, उसको देखकर एक कहावत याद आ रहीं। कहते हैं, एक लकड़ी जल्दी टूट जाती है। लेकिन जब कुछ लकड़ियां इकट्ठा होकर गठर का रूप लेती हैं। तो उसे तोड़ना मुश्किल होता है। तो अगर आज जिस गंगा-जमुनी सभ्यता और विविधता को समाहित करते हुए एकता के सूत्र में हम पहले बंधे हुए थे। वह डोर कमजोर पड़ रहीं। तो हमारे और हमारे समाज के लिए ही आने वाले समय में यह विद्रूप चेहरे के रूप में सामने आ सकता है। हमारे समाज में आज धैर्य का स्तर निम्न तो हो ही चला है, लेकिन एक विचित्र सा माहौल उत्पन्न हो रहा। जिसमें हम दूसरे से अच्छे व्यवहार की आशा तो रखते हैं, लेकिन ख़ुद का दूसरे के प्रति क्या दायित्वबोध है। वह भूल जाते हैं। ऐसे में एक ही उक्ति याद आती है। जब बोया पेड़ बबूल का, फिर आम कहाँ से होए। यहाँ पर हमे एक बात समझनी होगी, कि एक बेहतर समाज का निर्माण सभी कड़ियों के जुड़ने से बनती है। अगर किसी में थोड़ा सा दरार पड़ी, तो सामाजिक एकता लड़खड़ा जाती है। वैसे अगर आज हमारा समाज अधीर होता जा रहा। तो उसके पीछे एक बड़ा कारण है। जिसको समझना आवश्यक है। क्यों समाज में बढ़ रही अधीरता की खाई अनैतिक राह चुनने से गुरेज़ नहीं कर रही? आज समाज में अधीरता बढ़ने का कारण देखें, तो इसके कुछ कारण दिखते हैं। जैसे समाज में अर्थ की बढ़ती प्रधानता, राजनीति के चतुर-चालक लोगों द्वारा सिर्फ़ आम जन की आकांक्षाओं को विभिन्न वादों के माध्यम से बढ़ा देना आदि है। जिस कारण हर आदमी बैचैनी के साथ आज तेजी से दौड़ रहा है। ऐसे में जब समाज के कुछ लोगों की आकांक्षाएं पूर्ण नहीं होती। तो ट्रेन की पटरी उखाड़ी जाती है। सार्वजनिक संपत्ति को जलाया जाता है। साथ में साम्प्रदायिक आग में दूसरे समाज और जाति के लोगों के प्राणों की आहुति दी जाती है। ऐसे में अगर समाज को एकता के सूत्र में पिरोए रखना है। तो कुछ राजनीतिक और सामाजिक क़दम उठाने होंगे। तभी समाज में उत्पन्न हो रहीं, अधीरता को काबू में किया जा सकता है। तो सबसे पहले सियासी व्यवस्था से उम्मीद की जानी चाहिए, कि वह कोई ऐसे फैसले न ले। जिससे समाज में अनेकता का बीज पनपे। उसे समावेशी विकास की नीतियों पर चलना चाहिए। उसके बाद समाज का भी कुछ फ़र्ज़ बनता है, देश और समाज को एक सूत्र में बांधकर रखने में। इसलिए विभिन्न धर्म के लोगों को अपनी सामर्थ्य, उपलब्ध संसाधनों में समन्वय स्थापित करने की आदत डालनी होगी। इसके अलावा प्राचीन भारतीय जीवन दर्शन को पुनः अपनाना होगा। तभी देश की स्थिति सुधर सकती है, और देश एकता के सूत्र में बंधकर अक्षुण्य उन्नतिशीलता की तरफ़ बढ़ सकता है।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896