अश्वगंधा में औषधीय गुणों वाले जैवरसायनों को बढ़ाने में वैज्ञानिकों को मिली सफलता
अश्वगंधा का उपयोग 3,000 से अधिक वर्षों से भारतीय, अफ्रीकी और यूनानी पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों में किया जा रहा है। भारतीय और जापानी वनस्पति वैज्ञानिकों ने वर्मीकम्पोस्ट और उसके द्रवीय उत्पादों के उपयोग से अश्वगंधा की जीवन दर और इसके औषधीय गुणों के लिए जिम्मेदार विथेनोलाइड्स जैवरसायनों की मात्रा को बढ़ाने में सफलता पाई है।
गुरु नानक देव विश्वविद्यालय, अमृतसर और नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ एडवांस्ड इंडस्ट्रियल साइंस एण्ड टेक्नालॉजी (एआईएसटी), सुकुबा, जापान के वैज्ञानिकों द्वारा किए गए शोध में वर्मीकम्पोस्ट और उसके वर्मीकम्पोस्ट-टी और वर्मीकम्पोस्ट-लीचेट जैसे द्रवीय उत्पादों के उपयोग से कम समय में अश्वगंधा के बीजों के अंकुरण, पत्तियों की संख्या और उनके आकार, शाखाओं की सघनता, पौधों के जैवभार, उनकी वृद्धि, फूलों के उगने और फलों के पकने आदि में प्रभावी ढंग से बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है। शोध में सामान्य परिस्थितियों में उगाए गए अश्वगंधा की तुलना में वर्मीकम्पोस्ट से उपचारित इसकी पत्तियों में विथेफैरिन-ए, विथेनोलाइड-ए और विथेनोन नामक तीन विथेनोलाइड्स की मात्रा लगभग 50 से 80 प्रतिशत अधिक पाई गई है।
वैज्ञानिकों ने अश्वगंधा (विथेनिया सोमनीफेरा) की सरल, सस्ती और पर्यावरण-अनुकूल खेती और उसके औषधीय गुणों के संवर्धन के लिए गोबर, सब्जी के छिलकों, सूखी गिरी पत्तियों और जल के अलग अलग अनुपातों से मिलाकर बनाए गए वर्मीकम्पोस्ट और उसके द्रवीय उत्पादों वर्मीकम्पोस्ट-टी और वर्मीकम्पोस्ट-लीचेट का प्रयोग किया। बुवाई से पूर्व बीजों को वर्मीकम्पोस्ट-लीचेट और वर्मीकम्पोस्ट-टी के घोलों द्वारा उपचारित करके संरक्षित किया गया। बुवाई के समय वर्मीकम्पोस्ट की अलग अलग मात्राओं को मिट्टी में मिलाकर इन बीजों को बोया गया।
वरिष्ठ शोधकर्ता डॉ. प्रताप कुमार पाती ने इंडिया साइंस वायर को बताया कि अश्वगंधा की जड़ों का प्रयोग औषधियां के लिए किया जाता रहा है। इसकी पत्तियों को भी स्वास्थ्य की दृष्टि से अत्यधिक गुणकारी पाया गया है। अब तक इसकी पत्तियों से कुल 62 और जड़ों से 48 प्रमुख प्राथमिक और द्वितियक मेटाबोलाइट्स की पहचान की जा चुकी है। अश्वगंधा की पत्तियों में पाए जाने वाले विथेफैरिन-ए और विथेनोन में कैंसर प्रतिरोधी गुण होते हैं। हर्बल दवाओं की विश्वव्यापी बढ़ती जरुरतों के लिए औषधीय पौधों की पैदावार बढ़ाने के वैज्ञानिक स्तर पर गहन प्रयास किए जा रहे हैं। हमने भी अश्वगंधा के उत्पादन में वृद्धि की अनिवार्यता को समझते हुए वर्मीकम्पोस्ट और उसके द्रवीय उत्पादों के उपयोग से इसकी जैविक खेती का प्रयास किया है।
अश्वगंधा भारत के राष्ट्रीय औषधीय पादप बोर्ड द्वारा घरेलू और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सबसे अधिक मांग वाली चयनित 32 प्राथमिक औषधीय पौधों में से एक है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के चयनित औषधीय पौधों के मोनोग्राफ में भी अश्वगंधा को उसकी अत्यधिक औषधीय क्षमता के कारण शामिल किया गया है। गठिया, जरण, कैंसर और सूजन प्रतिरोधी गुणों के अलावा इसमें प्रतिरक्षा नियामक, कीमो व हृदय सुरक्षात्मक प्रभाव और तंत्रिकीय विकारों को ठीक करने वाले गुण होते हैं। इन चिकित्सीय गुणों के लिए अश्वगंधा में पाए जाने वाले एल्केलोइड्स, फ्लैवेनॉल ग्लाइकोसाइड्स, ग्लाइकोविथेनोलाइड्स, स्टेरॉल, स्टेरॉयडल लैक्टोन और फिनोलिक्स जैसे रसायनों को उत्तरदायी माना गया है। अश्वगंधा की पैदावार की सबसे बड़ी कठिनाईयों में उसके बीजों की निम्न जीवन क्षमता और कम प्रतिशत में अंकुरण के साथ साथ अंकुरित पौधों का कम समय तक ही जीवित रह पाना शामिल है। इसके अलावा, औषधीय रूप से महत्वपूर्ण द्वितियक मेटाबोलाइट्स की पहचान, उनका जैव संश्लेषण, परिवहन, संचयन और संरचना को समझना भी प्रमुख चुनौतियां हैं।
डॉ. प्रताप कुमार पाती के अनुसार वर्मीकम्पोस्ट के उपयोग से अश्वगंधा की पर्यावरणीय रूप से टिकाऊ तथा उच्च उपज की खेती और इसके औषधीय गुणों में संवर्धन से इन चुनौतियों से निपटा जा सकता है। यह शोध अश्वगंधा की जैविक खेती से इसके वाणिज्यिक मूल्य में वृद्धि द्वारा किसानों की आय बढ़ाने और हर्बल उद्योग में इसकी वैश्विक आपूर्ति का अवसर प्रदान करता है।
अध्ययनकर्ताओं की टीम में प्रताप कुमार पाती के अलावा अमरदीप कौर, बलदेव सिंह, पूजा ओह्री, जिया वांग, रेणु वाधवा, सुनील सी कौल एवम् अरविंदर कौर शामिल थे। यह शोध प्लाज़ वन नामक जर्नल में प्रकाशित हुआ है।