कविता
कभी- कभी बहुत गहरे तक
चुभ जाती हैं तुम्हारी बातें
सहज-सरल सी बातें
विष बुझा बाण बन
बेध जाती हैं मेरा अंतर्मन
नही समझ पाती
उस वक़्त उन बातों का अभिप्राय
तुम्हारी सरलता या
मेरे रिसते घावों को
और कुरेदना
जिनके ऊपर
दिखावे की एक परत सी है
लेकिन अंदर से है उतना ही हरा
जितना कि जब ज़ख़्मी हुई थी
अप्रत्याशित ही
सम्भावनाओं से परे…
बहुत भोले हो
जानती हूँ
ये भी नहीं समझते
कि बेखयाली में कहीं तुम्हारी बातें
कल्पना के ठहरे पानी में
कंकड़ों की भाँति सच की तरंगे बना के
मेरी स्वार्गिक दुनिया की परिकल्पना को
एक क्षण में ही
नेस्तनाबूत कर देती हैं….
-सुमन शर्मा
वाहहहहहहह