जहां में चाहे गम हो या खुशी क्या
जहां में चाहे गम हो या खुशी क्या
मेरे मा – बैन रंजिश दोस्ती क्या
खुदा मुझको यकीं खुद पे बहुत है
तो पंडित हो या चाहे मौलवी क्या
मुहब्बत के चरागे – दिल बुझे हैं
तो जाये आज या कल जिंदगी क्या
हजारों ख्वाहिशें फीकी पड़ी हैं
मुकद्दर है नही तो फिर कमी क्या
अगर तुम छोड़ दो लड़ना तो सोचूं
गुलों की खार से होगी दोस्ती क्या
यहां पे ख्वाइशें – महफ़िल जमी है
नही आयी अगर तुम तो खुशी क्या
किसी को फर्क पड़ता है वगरना
कहो अरविन्द कर लूं खुदखुशी क्या
— कुमार अरविन्द
प्रिय अरविंद भाई जी, गज़ल बहुत सुंदर लगी. अत्यंत सटीक व सार्थक ब्लॉग के लिए आभार.