दोहा छंद
दीप बुझे सद्भाव के, हुए बुरे हालात।
हाथों में खंजर लिए, करें प्रेम की बात।।
स्वार्थ साधने के लिए, खेलें खूनी खेल।
अपराधी बाहर रहें, निर्दोषों को जेल।।
वैसे तो हैं दोगले, लेकिन बनते नेक।
जाति पूछ कर बोलते, रक्त सभी का एक।।
झुंड बना कर घूमते, जैसे बकरी भेड़।
शेर समझते स्वयं को, माँ बहनों को छेड़।।
माचिस लेकर घूमते, बदल बदल कर वेश।
जाति धर्म की आग में, जला रहे जो देश।।
निर्धन तो निर्धन रहा, नेता मालामाल।
नित्य तिरंगा चीखता, देख वतन के हाल।।
अबलाओं की देह को, रहे मौलवी चूम।
सन्तों के अब भेष में, रहे भेड़िये घूम।
भारत माँ की ओढ़नी, शत्रु रहे नित फाड़।
उत्तर दो अब पाक में, अमर तिरंगा गाड़।।
जाने कितने हैं छिपे, काले विषधर नाग।
राजनीति पर अनगिनत, हत्याओं के दाग।
परिवर्तन की देश में, फिर से है दरकार।
महँगाई नित बढ़ रही, विफल हुई सरकार।।
— उत्तम सिंह ‘व्यग्र’