कविता

खत

खत

(1)

अब कहाँ कोई लिखता है खत

न ही कोई करता है इंतजार

न अब अपनों से गिला

न परायों से कोई शिकवा

कहाँ वह भावनाओं का समन्दर

जो दिल से उतरकर

अश्रु बन नयनों से बह निकले।

आज भी पूछी जाती है कुशलक्षेम

सम्बन्धों के तार जुड़ते हैं

सात समन्दर पार होकर भी

नहीं होता दूरी का आभास

जब चाहें तब देख-सुन लेना भी

नहीं जोड़ पाता है

लगता है सबसे नजदीकी का नाता

लेकिन क्या यह सब

क्षणभंगुर सा नहीं

औपचारिकता निभाते से

अपनत्व की सीमा से दूर।

(2)

आज के दौर में

किसी अपने का खत

मिल जाना

लगता है जैसे

सीमेंट-कांक्रीट के जंगल में

किसी खिड़की पर लटकता

गौरेया का घोसला

मिल जाना।

आज के दौर में

किसी प्रिय का खत

मिल जाना

लगता है

सूने बाग़ीचे में

आम्र वृक्ष पर कोयल का

कूकते जाना।

आज के दौर में

किसी नजदीकी का खत

मिल जाना

लगता है

ग्रीष्म की तपन में

सुखद हवा का एक झोंका

आ जाना।

*डॉ. प्रदीप उपाध्याय

जन्म दिनांक-21:07:1957 जन्म स्थान-झाबुआ,म.प्र. संप्रति-म.प्र.वित्त सेवा में अतिरिक्त संचालक तथा उपसचिव,वित्त विभाग,म.प्र.शासन में रहकर विगत वर्ष स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ग्रहण की। वर्ष 1975 से सतत रूप से विविध विधाओं में लेखन। वर्तमान में मुख्य रुप से व्यंग्य विधा तथा सामाजिक, राजनीतिक विषयों पर लेखन कार्य। देश के प्रमुख समाचार पत्र-पत्रिकाओं में सतत रूप से प्रकाशन। वर्ष 2009 में एक व्यंग्य संकलन ”मौसमी भावनाऐं” प्रकाशित तथा दूसरा प्रकाशनाधीन।वर्ष 2011-2012 में कला मन्दिर, भोपाल द्वारा गद्य लेखन के क्षेत्र में पवैया सम्मान से सम्मानित। पता- 16, अम्बिका भवन, बाबुजी की कोठी, उपाध्याय नगर, मेंढ़की रोड़, देवास,म.प्र. मो 9425030009