खत
खत
(1)
अब कहाँ कोई लिखता है खत
न ही कोई करता है इंतजार
न अब अपनों से गिला
न परायों से कोई शिकवा
कहाँ वह भावनाओं का समन्दर
जो दिल से उतरकर
अश्रु बन नयनों से बह निकले।
आज भी पूछी जाती है कुशलक्षेम
सम्बन्धों के तार जुड़ते हैं
सात समन्दर पार होकर भी
नहीं होता दूरी का आभास
जब चाहें तब देख-सुन लेना भी
नहीं जोड़ पाता है
लगता है सबसे नजदीकी का नाता
लेकिन क्या यह सब
क्षणभंगुर सा नहीं
औपचारिकता निभाते से
अपनत्व की सीमा से दूर।
(2)
आज के दौर में
किसी अपने का खत
मिल जाना
लगता है जैसे
सीमेंट-कांक्रीट के जंगल में
किसी खिड़की पर लटकता
गौरेया का घोसला
मिल जाना।
आज के दौर में
किसी प्रिय का खत
मिल जाना
लगता है
सूने बाग़ीचे में
आम्र वृक्ष पर कोयल का
कूकते जाना।
आज के दौर में
किसी नजदीकी का खत
मिल जाना
लगता है
ग्रीष्म की तपन में
सुखद हवा का एक झोंका
आ जाना।