गोद की शिफ्टिंग का सवाल
चाहे इस गोद में रहे चाहे उस गोद में, सवाल तो साज-सम्भाल का है चाहे बात बेजान बूतों ,प्रतीकों,स्मारकों की हो, चाहे लोगों की बेजान हो चुकी आत्माओं के कारण जन्में अवांछित समझे गए शिशुओं की,इनकी जिम्मेदारी कौन और कैसे उठायें जब ये उन्हें बोझ से लगने लगें।
उधर लाल किले के रखरखाव की जिम्मेदारी निजी कम्पनी को देने के विवाद की सरकार को कोई चिंता नहीं है और होना भी नहीं चाहिए।वैसे भी भूखे पेट और नंगे बदन से ज्यादा खंडहर होते स्मारकों का संरक्षण ज्यादा महत्व की बात है।देश के पर्यटन मंत्री के जे अल्फोंसे ने भी कहा है कि उनका मंत्रालय और भी स्मारकों को निजी रखरखाव के दायरे में लाने के लिए ‘अडॉप्ट ए हेरिटेज’ का विस्तार करेगा।उन्होंने पूर्ववर्तियों का उदाहरण देते हुए कहा भी है कि हुमायूं का मकबरा भी रखरखाव और संचालन के लिए उन्होंने दिया था।अब कहने वाले यानी विरोधी स्वर यह भी हो सकते हैं कि हुमायूं का मकबरा उतना राष्ट्रीय और पुरातात्विक महत्व का नहीं था जितना कि लाल किला है या फिर आने वाले समय में ताजमहल ,फतहपुर सीकरी या कुतुबमीनार हो सकते हैं!लेकिन कहने वालों की परवाह नहीं की जाना चाहिए क्योंकि कुछ तो लोग कहेंगे,लोगों का काम है कहना।बेकार की बातों में रैना तक बीत जाती है।
इधर दत्तक प्रक्रिया को केन्द्रीकृत कर दिया गया है।बच्चा गोद लेने के लिए सेंटर अडॉप्टेशन रिसोर्स अथॉरिटी (कारा) को ऑनलाईन आवेदन करने और विदेशी दम्पत्तियों के लिए भी छूट दे दी गई है क्योंकि देश में कई शिशुगृह संचालित है ।अभी अमेरिकी दम्पत्ति भी यहाँ से दो साल की विकलांग बच्ची को गोद ले रहे हैं।बच्ची स्पेशल नीड यानी विशेष आवश्यकता वाले बच्चों की श्रेणी में आती है।
माना कि देशभर में शिशुगृह खोल रखे हैं लेकिन शिशुओं को अच्छी परवरिश मिले माता-पिता का लाड़-दुलार मिले,यही सोचकर तो उन्हें गोद दिया जाता है, भले ही गोद लेने वाले विदेशी हों!क्या सहमत हैं आप!क्योंकि इसका तो कोई विरोध नहीं करता!क्या शिशु की देखभाल सरकारें नहीं कर सकतीं,उनकी शिक्षा-दीक्षा का प्रबन्ध नहीं कर सकती!कर सकती है फिर भी गोद दे देते हैं!कम से कम अपनी बला दूसरों के सिर मढी़ जा सकती है और फिर अपने ऊपर कोई तोहमत भी नहीं।
वैसे भी यह अडॉप्शन का चलन कोई आज से तो है नहीं जो इतना तूफान खड़ा किया जाए!पहले के समय में हम दो हमारे दो का चलन तो था नहीं।घरों में चिल्लर बहुतायत में पाई जाती थी, ऐसे में सक्षम नाते-रिश्तेदार जो चिल्लर की समस्या से जूझ रहे होते थे उन्हें अपनी सबसे नालायक या अवांछित सी लगने वाली औलाद घर के मुखिया द्वारा गोद दे दी जाती थी, घर भर के विरोध के बाद भी।इनके लिए देखभाल ,रखरखाव के झंझट से मुक्ति और उनके लिए निरवंशी होने के दाग से छुटकारा।ऐसा ही कुछ यहाँ-वहाँ किसी की मुहब्बत में तो किसी की याद मे तो किसी को तोहफा देने के लिए बनाये गए मकबरे,स्मारक,महल अवांछित से लगते आज के तो सिरदर्द हैं न! तब गोद देने में क्या हर्ज है!
सीधी सी बात है कि अडॉप्टेशन की परम्परा सदियों से चली आ रही है।जहाँ कोई बोझ सा लगे,उसे दूसरे के पल्ले बाँध दो।यही तो समझदारी भी है।इसमें अगर किसी को तकलीफ होती है तो होती रहे।कुछ काबिलियत हम में नहीं या फिर कुछ अवांछित और नाकारा वे भी तो कैसे बोझ उठायें और सहे।अब तो राजनीति में भी यह संकट आ खड़ा हुआ है।लगभग सभी राजनीतिक दलों को एक दूसरे की अवांछित संतानों को आवश्यक बुराई मानकर अडॉप्ट करना पड़ रहा है।इसमें कहीं मजबूरी खोजी जा सकती है तो कहीं खुशी भी!
डॉ प्रदीप उपाध्याय,१६,अम्बिका भवन,बाबूजी की कोठी,उपाध्याय नगर,मेंढकी रोड़,देवास,म.प्र.
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