बढ़ते चल।
मानव अपनी पीड़ा खुद व्यक्त करता है
जिंदगी में ठोकर खाकर आगे बढ़ता है
मत घबरा इतना शांत चले और चल
नदी की धरा की तरह आगे बढे चल ।
पानी की बुँदे गर्म तवा पर छटपटाता है
जिद में लिया निर्णय जीवन को हिलाता है
परिवार में रिश्तों की अहमियत करते चल
रिश्ते की डोर को एहतियात समझते चल।
बिना सोचे समझे निर्णय नहीं लिया जाता है
भावनाओं में बहकर न काम किया जाता है
अपनी जिंदगी को आगे संवारते चले चल
माँ बाप और बड़ों का बात मानते चल।
रिश्ते की डोर को अधिक नहीं खीचना चाहिए
मन को भी अधिक नहीं बढ़ाना चाहिए
इंसान होने का मतलब समझते चल
अपनी जमीर को जमाते और बनाते चल।
रचनाकार – रंजन कुमार प्रसाद ( माध्यमिक शिक्षक)