गीत – उस उपवन को जल देकर
उस उपवन को जल देकर ,वृथा समय बरबाद न कर!
जिस उपवन में केवल काँटे वाले पेड़ पनपते हों ।
जहाँ अँधेरो की पूजा हो ,दीपक का उपहास बने ।
सारे श्रोता पटु वक्ता हो, गूँगा कोई व्यास बने ।
जहाँ सुनहरे वर्तमान की बलि अतीत को दी जाये,
ऐसी अंधनीति हो तो फिर,क्या स्वर्णिम इतिहास बने ?
वह तरुवर तो सूखेगा ही,जिसपे बगुले रहते हों।
उस उपवन को…………………………….
जहाँ पाँव में भार बाँधकर घोड़े दौड़ लगाते हों ।
नकली स्पर्धा होती हो ,गधे जिताये जाते हों ।
जहाँ जन्म का दोष संजोये,भूखें स्वेद बहाते हों
जहाँ अघाये लोग देर तक ,राग भुखमरी गाते हों।
जहाँ रोज काँसे का ताना, कनक बेचारे सहते हों।
उस उपवन को ……………………..
पक्षपात हो आँख मूँदकर,प्रतिभा का सम्मान न हो।
बगुले बनें मराल ,भले ही नीर क्षीर का ज्ञान न हो ।
जहाँ निशा के आखेटक कुछ उल्लू यही मनाते हों,
निष्कंटक हो राज्य हमारा चाहे भले विहान न हो ।
जहाँ रोज मेहनत करने वालों के सपने ढहते हों ।
उस उपवन ……………………………….
———–© डॉ. दिवाकर दत्त त्रिपाठी