यात्रा वृत्तान्त : शिक्षा
ग्वालियर से खिरकिया तक का सफर मैं और साथ में मेरे पिताजी। ट्रैन के वो जनरल डिब्बे का सफर जिसे लिखे बगैर रहा ही नही गया। कई लोगो की धक्का मुक्की के बाद रेल में जैसे तैसे चड़कर अपने-अपने लिए सभी जगह ढूंढ रहे थे। उसी भीड़ में पिताजी के एक मित्र भी मिल गए वे भी खिरकिया तक का सफर करने वाले थे। खैर कुछ पल खड़े होने के बाद एक आवाज ने मेरे कानों में दस्तक दी, एक युवक की आवाज ने बड़ी तहजीब के साथ कहा बहन यहाँ बैठ जाओ। उस भीड़ में खड़े रहने से कई ज्यादा अच्छा बैठना था। मैं वहाँ जाकर बैठ गई।
कुछ देर बाद रेल ने अपनी यात्रा प्रारंभ की। कुछ किलो मी. के बाद झाँसी में ट्रेन काफी खाली हो चुकी थी। शाम के 7 बजने को थे । शायद सभी अपने-अपने घर तक का सफर तय कर चुके होंगे। झाँसी में ट्रेन इतनी खाली हो गई की रेल का जनरल डिब्बा जैसे स्लीपर बन गया हो।
फिर क्या था सभी आराम से बैठ गये।मेरे आस पास सब पुरुष वर्ग था,मैं अकेले ही महिला का प्रतिनिधित्व निभा रही थी।खैर मैं भी अपनी धुन में मग्नकुछ ख्याली पुलाव पकाने में मस्त थी,सब अपने में बिजी थे,कि अचानक पिता जी के मित्र ने उस सन्नाटे को विराम देते हुए पिता जी की नोकरी के बारे में प्रश्न किया कि रिटायर होने में कितना वक़्त बाकि है? (मेरे पिता जी सरकारी अस्पताल में ड्रेसर है) पिता जी ने साधारण सा उत्तर दिया 3 साल। और साथ ही कहा जहाँ से नोकरी की शुरुआत की वही से रिटायर भी होंगे।
इतने वर्ष एक ही जगह नोकरी की वजह जानने के लिए उस युवक प्रश्न किया, आपका कभी ट्रांसफर नहीं हुआ? पिता जी ने कहा – नही।
इस तरह बातो का सिलसिला प्रारंभ हो गया। बातो के चलते पता लगा, वहाँ जिनते भी व्यक्ति बैठे थे इत्तिफाक से सभी सरकारी कर्मचारी थे।फिर क्या था सभी अपनी अपनी बताने लगे। ऐसे ही एक अंकल जिनकी उम्र से ज्यादा गुरुर था उनमे ,ऊपर वाली सीट सहसा झांके व बोले भई सरकारी कर्मचारी तो में भी हूँ पर बड़ी अच्छी नोकरी हैं।आराम ही आराम हैं। उनकी बाते सुन अन्य सभी उत्सुकता वश पूछने लगे किस विभाग में ? अंकल ने बड़ी अकड़ के साथ कहा पहले में अस्पताल में था पैसे कम मिलते थे तो छोड़ कर दूसरी नोकरी की ।वहाँ भी मजा नही आया तो फिर दूसरी, वर्तमान में शिक्षक है जनाब । उन्होने तो अपने अतीत के सारे पन्ने ही खोल दिए थे। पर बात यह तक तो सबके समझ आई कि अब वह शिक्षक है, पर उसके बाद जो उन्होंने कहा वह मेरे लिए प्रश्न चिन्ह बन गया। उन्होंने कहा कि अब में सरकारी शिक्षक हू। ऐश की जिंदगी और आराम की नोकरी दोनों ही है जाओ साइन करो और बेठो।कभी मन हो तो पढ़ाओ पर उसमे भी आराम ही है। मैं सोच में पड़ गई क्या शिक्षक होना इतना सरल है? पर मुझे मेरे सवालो से ज्यादा देर तक लडना नही पड़ा क्योंकि जबाब सामने बैठे उसी युवक से मिल गया जिसने मुझे बहन कहकर अनायास ही एक रिश्ता लिया था भाई होने का। उस युवक ने पहले अंकल की बातों को ध्यान से सुना ,फिर इत्मीनान से बोला। शिक्षक तो में भी हू पर आराम नहीं । है सुकून जरूर है रूह को। उस युवक के अतीत के पन्ने खुलने पर अहसास हुआ कि इस समाज में अच्छा होना कितना बड़ा गुनाह है। युवक ने बताया कि मेने जिस जगह से अपनी नोकरी की शुरुआत की मैं वहाँ पूरी ईमानदारी से नोकरी करता था । इस लिए बाकि सब से यह देखा नहीं गया उन्होंने मुझे कहा जैसा चल रहा है चलने दो।पर मैं ठहरा नवयुवक और साथ ही सच्चाई का चौला पहनने वाला। मैंने उनकी बात नहीं मानी, इसका ईनाम यह मिला कि मुझे दूर एक गांव में ट्रांसफर करवाकर भेज दिया गया। सुबह शाम ट्रैन का सफर करता हूँ, और दिन में नोकरी । रात मेरे परिवार के हिस्से आती है पर अफसोस उस वक़्त घर में नींद का सन्नाटा छाया होता है। हा पर अब जहाँ नोकरी करता हूँ वहाँ सभी शिक्षक विद्यार्थियों को शिक्षा देते हैं। पर अफ़सोस यहाँ भी 1 -2 शिक्षक नाम के शिक्षक है। ऐसे लोगो की वजह से ही बाकि सारे शिक्षक बदनाम होते हैं। खैर विद्यालय ठीक ठाक चल रहा है वह बात अलग है कि मैं साइंस का शिक्षक होकर इंग्लिश पढा रहा हूँ। शिक्षकों की कमी की वजह से यह कार्य मुझे सौपा गया है। पर कभी कभी लगता है कि मै क्या कर रहा हूँ और क्यों? मैंने कई बार मना भी किया पर विद्यार्थी की वो खाली कक्षा मुझे अपनी और खींच ही लेती हैं। और मुझे जितना आता है उतना मैं उनको पूरी ईमानदारी के साथ सिखाता हूँ। मेरी आत्मा मुझे मेरे कर्तव्य से पीछे नहीं हटने देती ।मैं शिक्षक हूँ और शिक्षा देना मेरा कर्तव्य हैं। फिर चाहे उसके लिए मुझे भी पहले सीखना पढ़े। पर कभी कभी लगता है कि विद्यार्थियों का क्या दोष? यही कि वे गरीब हैं इसलिए अच्छे स्कूल में नहीं जा सकते। बड़ा गुस्सा आता है ऐसे लोगो पर जो अपने कर्तव्य से मुख फेर लेते हैं। उस युवक की हर एक बात यु तो कड़वा सच थी जिसे सुन पाना सबके वश की बात नहीं। यही कारण था कि अबतक जो बड़ी अकड़ के साथ बात कर रहे थे वो अंकल अपने झूठे गुरुर को चादर में छिपा सोने का नाटक करते नजर आ रहे थे।
उस युवक की एक बात हमेशा याद आती है कि हमारे देश में युवा शक्ति तो है पर अफ़सोस कि ये युवा शक्ति जाति धर्म और कई छोटी छोटी बातों को लेकर आपस में लड़ने में मग्न हैं । इसी लिए देश का ये हाल है। यदि सच मुच तुम देश का भला चाहते हो तो संगठित होकर देश के हित में लड़ो। सच मुच क़ भारतीय बनो, हिन्दू मुस्लिम सिक्ख ईसाई नहीं, सिर्फ भारतीय ।। फिर देखते है कोन तुम्हे तरक्की करने से रोकता है। उन्होंने कहा यदि देश ला हर नागरिक अपने मन का विश्लेषण करें की वह क्या कर रहा है और क्यों? तो शायद उसका जमीर जो शायद सो चूका है वह जाग पाये । खैर उन्होंने भी अपनी ओजश्वी वाणी की विराम देते हुए कहा- मुझे ख़ुशी है कि मैं अपना कर्तव्य निभा रहा हूँ और इसी बात का सुकून भी। इन सब बातों को सुनकर मेरा खून भी खोल उठा था सच लग रहा था कि लोगो को क्या सिर्फ अपना स्वार्थ और आराम ही प्यारा है। जिनकी वजह से उनका घर चलता है जिनके कारण उन्हें वेतन मिलता हैं क्या वे उपेक्षा के पात्र हैं? क्या एक गरीब के बच्चे को हक़ नहीं कि वह भी अच्छी शिक्षा प्राप्त करे।उसे भी उचित ज्ञान मिले। क्या………?
सभी अपने अपने घर पहुच गये। पर कुछ सवाल मेरे मन में अब तक है शायद यह यात्रा वृत्तान्त पढ़ने के बाद लोग अपनी जिम्मेदारी समझे।
दीपिका गुप्ता कोयल
खिरकिया