मानव के धुप
जिंदगी बेजुबान होती जा रही है,
काया लहूलुहान होती जा रही है।
मानव के धूप में जिए तो कैसे जिए,
मेरी गृहस्थी सुनसान होती जा रही है॥
आए-दिन हंगामा करना मेरा मकसद नहीं,
जिंदगी,जिंदगी से लड़े ये मेरा मकसद नहीं।
आप जाएं अपने घर को जिंदगी के लिए,
मेरी जिंदगी जंजीर में तब्दील होती जा रही है॥
कुछ लोगों को कुछ समझ में नहीं आता,
कुछ कहें तो इंसान आग बबूला हो जाता।
कहते हैं अपनी जिंदगी कैसे भी जिएं,
मेरी जिंदगी अनबूझ पहेली होती जा रही है॥
चल पड़ा कारवाँ ये शहर के लिए,
अपनी जिंदगी में चला बहर के लिए।
मानव की धूप ऐसी पड़ी कि,
मेरी जिंदगी श्मशान होती जा रही है॥
रचनाकार- रंजन कुमार प्रसाद
( माध्यमिक शिक्षक )