गीतिका/ग़ज़ल

उम्मीदें

2212 2212 2212

बैसाखियों पर चलती उम्मीदें मेरी
अब नफरतों पर पलती उम्मीदें मेरी

न मिला शजर, न मिली कली कोई कभी
बनकर परिंदा उड़ती उम्मीदें मेरी

शब रो रही महताब के आगोश में
तारों के साथ ये रोती उम्मीदें मेरी

पाया न जब सपनो का इसने आसमा
तब पत्थरों सी चुभती उम्मीदें मेरी

न बना सकी उल्फत का ताजमहल ये जब
वीरानों में तब रहती उम्मीदें मेरी

जब इश्क़ का न कलाम पढ़ पायी कोई
अफसाना बन तब उड़ती उम्मीदें मेरी।

*प्रिया वच्छानी

नाम - प्रिया वच्छानी पता - उल्हासनगर , मुंबई सम्प्रति - स्वतंत्र लेखन प्रकाशित पुस्तकें - अपनी-अपनी धरती , अपना-अपना आसमान , अपने-अपने सपने E mail - [email protected]