“कुंडलिया”
भरता नृत्य मयूर मन, ललक पुलक कर बाग
फहराए उस पंख को, जिसमें रंग व राग
जिसमे रंग व राग, ढ़ेल मुसुकाए तकि-तकि
हो जाता है चूर, नूर झकझोरत थकि-थकि
कह गौतम कविराय, अदाकारी सुख करता
खुश हो जाता खंड, दंड पावों में भरता॥
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी