लघुकथा

चिंता के बादल

 सुबह की बेला में ओस की बूंदें इंद्रधनुषी छटा बिखेर रही थीं। कभी भारी बारिश तो कभी ओलावृष्टि जैसे कुदरत की मार की वजह से भारी कर्ज के बोझ तले दबे रमेश को प्रकृति की सुंदरता भी नहीं भा रही थी । सधे कदमों से वह अपने खेतों की तरफ बढ़ रहा था । मजदूरी व किराये के पैसे न होने की वजह से उसने खेतों में खुले में रखे हुए गेहूं अभी तक नहीं उठवाए थे ।  अचानक अंधेरा घिर आया । काले काले मेघ आकाश में तेजी से विचरने लगे । बिजली की चमक रमेश को अंदर तक सिहरा गई । बारिश का अंदेशा उसे बेचैन कर गया । चिंता और घबराहट से पसीना छलक आया था उसके माथे पर । घबराहट में दौड़ पड़ा खेतों की ओर ।
 खेत में पहुंचने पर देखा उसका मित्र श्याम कुछ मजदूरों की मदद से खुले में पड़ी गेहूं की बोरियां  अपने ट्रैक्टर में लदवा रहा था । उसे देखते ही श्याम बोल पड़ा ,” अरे पगले ! एक बार कहकर तो देखा होता ! क्या पैसा ही सब कुछ होता है ? ” अपने मित्र का स्नेह व प्यार देखकर रमेश की पलकें भीग आई थीं ।
चिंता के बादल अब छंट चुके थे ।

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।

2 thoughts on “चिंता के बादल

  • लीला तिवानी

    प्रिय ब्लॉगर राजकुमार भाई जी, बहुत सुंदर कथा. कभी-कभी ऐसे भी चिंता के बादल छंटते हैं. अत्यंत सटीक व सार्थक रचना के लिए आपका हार्दिक आभार.

  • मनमोहन कुमार आर्य

    मार्मिक कथा। हार्दिक धन्यवाद्। नमस्ते। सादर।

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