विरह वेदना
विरह वेदना के आँचल में ,कैसे तुझे छुपाऊँ मै
कहने को तो मै माँ हूँ पर, तुझे बचा न पाऊँ मै–!
लोग कहें परछाई मेरी,मन ही मन मुस्काती हूँ
देख के तुझमें बचपन अपना,फूलों सी खिल जाती हूँ
टुकड़े होती परछाँई को,किस आँचल में छुपाऊँ मै-
कहने को तो मै माँ हूँ–!!
जब भी अस्मित को झुलसाया,जग के ठेकेदारों ने
सिसक-सिसक तू ममता रोई, शोर नहीं चित्कारों में
तन-मन पर जो लगी है चोटें, कौन सा लेप लगाऊँ मै-
कहने को तो मै माँ हूँ–!
न कोई बनता भगत सिंह अब, न कोई विदुषी वाला है
लाज शरम सब बेच के फिरता, हर कोई मतवाला है
रहे सभ्यता यहाँ यशस्वी कौन सा पाठ पढा़ऊँ मै-
कहने को तो मै माँ हूँ–!!
— नीरू “निराली”