लघुकथा

“झरोखे से झाँकती सुबह”

अमूमन हर रात को आने का अंदेशा पूर्ववत होता ही है, शायद इस रात को भी खबर है कि आज नहीं तो कल मैं भी जरूर आऊँगी पर जब आई तो भावनाओं को झंझोड़कर एक नई सुबह कर गई और याद आने लगे वे दिन जो कभी रात को रात होने ही नहीं देते थे। कितना प्रकाश था उस विशाल मन में, जो अँधेरों को चीर कर उजाला कर देते थे। दिवास्वप्न का नाम सुन रखा था झिनकू भैया ने जिसे आज सामने खड़ा पाकर घूर-घूर कर देखे जा रहे हैं और शायद अपने आप से पूछना चाह रहे हैं कि यह कैसा अंधेरा है भाई जो आज दिन में ही फैलते जा रहा हैं हिम्मत है तो रोक लो इसे और हो जाने दो उस सवेरे को जो प्रति दिन लालिमा लेकर आता है और अंधेरी रात छोडकर चला जाता है जिसे दिन उजागर करता है रात छुपाती है। सिलसिला स्नेह दर्द का रह-रह तराना गाने लगता है, मिलना, बिछड़ना और दूर जाना यही तो संसार की धुन गीत प्रभाती है भागवान!……. कलह के बाद मलाल क्यों?, रात घिर गई है सो जाओ, कल सबकी अपनी-अपनी सुबह होगी…..झिनकू भैया की नाक बजने लगती है और भौजी के उलझते रिश्तों की एक नई सुबह अपने झरोखे से झाँकने लगती है।

महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी

*महातम मिश्र

शीर्षक- महातम मिश्रा के मन की आवाज जन्म तारीख- नौ दिसंबर उन्नीस सौ अट्ठावन जन्म भूमी- ग्राम- भरसी, गोरखपुर, उ.प्र. हाल- अहमदाबाद में भारत सरकार में सेवारत हूँ