आर्यसमाज की स्थापना सनातन वैदिक धर्म की रक्षा के लिए की गयी थी
ऋषि दयानन्द इतिहास में सत्य के आग्रही अनुपमेय महापुरुष थे। उन्होंने अपने जीवन में सत्य को छोड़ा नहीं और कभी असत्य को अपने किसी उद्देश्य पूर्ति का साधन नहीं बनाया जैसा कि सामान्य जन प्रायः किया करते हैं। सत्य धर्म की खोज के लिए ही उन्होंने अपने गृह का त्याग किया था और वैदिक धर्म के विद्वानों के आश्रमों वा स्थानों पर जाकर उनसे धर्म के सत्य सिद्वान्तों को जानने के साथ वह उनसे ईश्वर व आत्मा के सत्य स्वरूप की चर्चा भी करते थे। ईश्वर की प्राप्ति के लिए उन्होंने योग का सहारा लिया और उसमें सफलता भी प्राप्त की थी। विद्या प्राप्ति के लिए उन्होंने स्वामी विरजानन्द सरस्वती का आश्रय लिया और मथुरा पहुंच कर उनसे विद्यादान देने की प्रार्थना की थी। स्वामी दयानन्द स्वामी विरजानन्द जी के शिष्य बने और उनसे सन् 1860 से सन् 1863 के लगभग ढ़ाई वर्षों में आर्ष संस्कृत व्याकरण पढ़कर संस्कृत भाषा पर असाधारण अधिकार प्राप्त किया। गुरु विरजानन्द जी से आपको सत्य व असत्य को जानने की कसौटी भी प्राप्त हुई थी। जो बात तर्क व युक्ति से सिद्ध होती है वही सत्य हो सकती है। उन्हें यह भी ज्ञान प्राप्त हुआ था कि वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक है। वेदों का पढ़ना व दूसरो को पढ़ाना तथा वेदों का विद्वानों से उपदेश सुनना व उसे सुने हुए उपदेश को अपने इष्ट मित्रों व अन्यों को सुनाना ही मनुष्य का परम धर्म है।
स्वामी दयानन्द जी ने गुरु विरजानन्द जी से विद्या पूर्ण कर अपने गुरु की प्रेरणा से संसार से अविद्या दूर करने व वैदिक धर्म की रक्षा सहित इसका प्रचार व प्रसार कर अन्यों को भी वैदिक धर्म की शरण में लाने के उद्देश्य से वेदों का प्रचार किया और प्रचार को स्थाई व प्रभावशाली बनाने के लिए आर्यसमाज संगठन, जो कि वस्तुतः एक आन्दोलन है, की 10 अप्रैल, सन् 1875 को स्थापना की। आर्यसमाज के दस नियम हैं जिनमें ईश्वर को सृष्टि रचना और विद्या का मूल बताया गया है। ईश्वर के सच्चे स्वरूप का संक्षिप्त उल्लेख भी दूसरे नियम में किया गया। वेदों का महत्व बताते हुए तीसरे नियम में वेदों को सब सत्य विद्याओं का पुस्तक एवं इसके प्रचार व प्रसार को परम धर्म बताया है। सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने को मनुष्य का आवश्यक कर्तव्य बताया गया है। मनुष्य को अपने सभी कार्य सत्य व असत्य को विचार करके ही करने चाहियें। संसार का उपकार करना अर्थात् सभी मनुष्यों की शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति को आर्यसमाज का मुख्य उद्देश्य बताया गया है। सब मनुष्यों को दूसरों से प्रीतिपूर्वक, धर्मानुसार और यथायोग्य व्यवहार करने की व्यवस्था दी गई है। मनुष्यों का आवश्यक कर्तव्य बताते हुए कहा गया है कि सब मनुष्य को अविद्या का नाश तथा विद्या की वृद्धि करनी चाहिये। नौंवे नियम में अपनी उन्नति सहित दूसरों की उन्नति में सहायक बनने व दूसरों की उन्नति को भी अपनी उन्नति मानने की सलाह दी गई है। अन्तिम दसवें नियम में आर्यसमाज के अनुयायियों को कहा गया है कि वह सामाजिक सर्वहितकारी नियमों के पालन में वह परतन्त्र हैं और प्रत्येक हितकारी नियम पालने में स्वतन्त्र हैं। इन सिद्धान्तों व उद्देश्यों पर आर्यसमाज का संगठन खड़ा हुआ है। आर्यसमाज के यह सब सिद्धान्त वैदिक धर्म की रक्षा व उसके विश्व में प्रचार करने के लिये बनाये गये हैं जिससे संसार से अविद्या का नाश होकर विद्या की सर्वत्र प्रतिष्ठा हो सके।
ऋषि दयानन्द (1825-1883) के जीवन काल में हमारा देश अंग्रेजों का पराधीन था जो ईसाई मत के अनुयायी थे। अंग्रेज शासक वर्ग भारत वर्ष के लोगों को अपने मत का बनाना चाहते थे जिससे उनकी सत्ता सुस्थिर हो सके और वह अपने धर्म की सेवा भी कर सके। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने वेदों का अंग्रेजी में तथ्यों को तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत करने वाला अनुवाद करवाकर उसे प्रकाशित कराया। वेद हिन्दुओं वा आर्यों का प्रमुख धर्मग्रन्थ था और वह आशा करते थे ऐसा करके वह बड़ी संख्या में पठित हिन्दुओं को अपने मत में आकर्षित कर सकते हैं। इस मान्यता के पोषक विदेशी संस्कृत विद्वान मैक्समूलर के कुछ पत्र भी प्रमाणस्वरूप उपलब्घ हैं। गोवा व उत्तर पूर्वी भारत सहित देश के सभी भागों में वैदिक धर्मी आर्य हिन्दू ही रहा करते थे। यह छल, प्रलोभन व डर से धर्मान्तिरित किये गये थे। मुस्लिम शासन काल मुख्यतः औरंगजेब के शासन में बड़ी संख्या में मृत्यु का भय दिखाकर हिन्दुओं का धर्मान्तरण किया गया था। उस काल व उसके आगे पीछे भी अनेक अत्याचार किये गये थे। ऋषि दयानन्द इन सब कार्यों के पीछे छिपी हुई विधर्मियों की योजना को अच्छी प्रकार से जानते व समझते थे। वैदिक धर्म व संस्कृति को विधर्मियों से बचाने, सद्धर्म में प्रचलित हुए अज्ञान, अंधविश्वासों, मिथ्या परम्पराओं व सामाजिक असमानताओं आदि को दूर करने के साथ वेद और वैदिक धर्म का विश्व में प्रचार करने के लिए ऋषि दयानन्द ने आर्यसमाज की स्थापना की थी। ऋषि दयानन्द के प्रचार में भय, प्रलोभन, छल आदि का किंचित सहारा नहीं लिया गया अपितु सत्य, तर्क व युक्तियों द्वारा प्रमाणित सबसे प्राचीन, श्रेष्ठ व ईश्वर प्रदत्त वैदिक धर्म का मनुष्य को अज्ञान, अविद्या व जन्म-मरण के दुःखों से मुक्ति दिलाने के लिए ही प्रचार किया। उनके प्रचार एवं कार्यों से ही वैदिक धर्म वर्तमान समय तक सुरक्षित रहा है। यदि आर्यसमाज की सत्य व तर्क युक्त वैदिक विचारधारा को हिन्दू समाज ने पूर्णतया अपना लिया होता तो आज पूरे विश्व में वेद, सत्य व विद्या का डंका बज सकता था। विश्व से अज्ञान व अन्धविश्वास दूर हो सकते थे। सभी मिथ्या परम्परायें दूर हो जाती एवं सामाजिक समानता स्थापित हो सकती थी। मत-मतान्तरों के आचार्यों के अज्ञान व स्वार्थों के कारण यह लक्ष्य प्राप्त नहीं किया जा सका। बिना इस लक्ष्य की पूर्ति के संसार को एक सूत्र में पिरोकर उसे सुखी व कल्याण के मार्ग पर स्थिर नहीं किया जा सकता। संसार में विद्या से युक्त व अविद्या से सर्वथा मुक्त वैदिक धर्म का कोई विकल्प नहीं है। संसार में जब कभी पूर्ण शान्ति व सुख स्थापित होगा तब उसका आधार अवश्य ही वेद व वेदों की शिक्षायें ही होंगी।
वेद विद्या के ग्रन्थ हैं जिनमें अविद्या का लेशमात्र भी विद्यमान नहीं है। ईश्वर, जीवात्मा और प्रकृति का सत्यस्वरूप, सृष्टि की रचना, इसका प्रयोजन, ईश्वरोपासना, अग्निहोत्र-यज्ञ, पुनर्जन्म का सिद्धान्त, मनुष्यों के कर्तव्य, मृतक शरीर का अन्त्येष्टि दाह कर्म आदि वेदों की ही संसार को देन हैं। इस कारण संसार से धार्मिक व सामाजिक अविद्या को केवल वेदों के अध्ययन, वेद प्रचार सहित वेदों के आचरण से ही दूर किया जा सकता है। ऐसा होने पर सनातन वैदिक धर्म की रक्षा हो सकेगी। यह भी जान लेना आवश्यक है कि सत्य वैदिक धर्म ही सनातन धर्म है जो कि मूर्तिपूजा, अवतारवाद, फलित ज्योतिष, जन्मना जाति व्यवस्था का विरोधी व सामाजिक समरसता का पोषक है। ऋषि दयानन्द के सभी ग्रन्थों मुख्यतः सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय आदि के अध्ययन से इसे जाना जा सकता है। वैदिक धर्म व इसके सिद्धान्त ही ऐसे हैं कि जिनका अध्ययन व आचरण कर मनुष्य जीवात्मा और ईश्वर को जानकर ईश्वर को प्राप्त भी कर सकता है और जन्म व मरण के बन्धनों सहित सभी दुःखों से छूटकर आनन्दमय मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। ऋषि दयानन्द व उनके प्रमुख अनुयायियों स्वामी श्रद्धानन्द, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, पं. लेखराम, स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती आदि ने इन लक्ष्यों को प्राप्त किया अथवा वह इन लक्ष्यों के अत्यन्त समीप पहुंचे थे। इन लक्ष्यों को प्राप्त करने का अन्यत्र कोई विकल्प नहीं है।
ऋषि दयानन्द ने और उनके द्वारा स्थापित आर्यसमाज ने संसार से धार्मिक व सामाजिक अविद्या की बुराई को वेद प्रमाणों, तर्क एवं युक्तियों से दूर किया है। जो लोग आर्यसमाज को नहीं अपना रहे हैं वह उनकी अपनी अज्ञानता आदि कारणों से है। वेद के सिद्धान्तों व मान्यताओं की दृष्टि से आर्यसमाज सत्य व विद्या पर टिका हुआ पूर्ण सुरक्षित है। आर्यसमाज और हिन्दु समाज को भय है तो वह अविद्याजन्य लोगों, धर्म के नाम पर हिंसा करने वालो व जनसंख्या वृद्धि कर सत्ता प्राप्त करने वाली मानसिकता से है। इसका निराकरण भी समग्र हिन्दू समाज और आर्यसमाज को संगठित होकर व अपने अन्धविश्वासों व मिथ्या परम्पराओं को दूर करने से ही हो सकता है। इसके बिना रक्षा का कोई उपाय नहीं है। आर्यसमाज में जितनी क्षमता वेद प्रचार वा धर्म प्रचार की है उसके अनुरूप कार्य नहीं हो रहा है। आज आर्यसमाज का प्रचार अपने मन्दिरों व संस्थाओं के अन्दर ही सिमट गया है। विद्वान दक्षिणा-भोगी हो गये हैं। इस जंजाल से विद्वानों को बाहर निकल कर अज्ञान व अविद्या से ग्रसित लोगों के पास पहुंचना होगा। अविद्या से ग्रस्त लोगों की अविद्या दूर करना वेद को धर्म मानने वाली आर्यसमाज संस्था के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। फिलहाल इसके लिए आर्यसमाज के पास कोई योजना नहीं है। वह सम्प्रति अनावश्यक सम्मेलनों व उत्सवों में ही अपनी ऊर्जा को नष्ट करते रहते हैं। लोकैषणा से बचना और अपनी सामर्थ्य को अज्ञानियों, निर्बलों, दलितों, शोषितों आदि के कल्याण में लगाने से ही आर्यसमाज वेद और वैदिकधर्म को बचा सकता है। ऋषि दयानन्द ने आर्यसमाज पर विश्व में वेदों का प्रचार व प्रकाश करने और पूरे विश्व को श्रेष्ठ विचारों वाला आर्य बनाने का दायित्व सौंपा है। इसी कार्य की पूर्ति से धर्मरक्षा की जा सकती है। ओ३म् शम्।
— मनमोहन कुमार आर्य