लघुकथा – नज़र
कोई दस दिन पहले एक सुबह ही अनु का मेसेज मिला “दी,अंश इज़ नो मोर ” स्तब्ध तो हुई,पर दुःख नहीं हुआ ! ऐसा तो पहले कभी हुआ कि किसी की मौत की खबर पर मुझे तसल्ली हुई हो ! अंश का भोला पर निर्विकार चेहरा याद आ गया !
सच तो यह है कि मैं अपने पड़ौसी अरोरा साहब का दुःख,बहुत गहराई से महसूस कर चुकी थी ! उनका बेटा मणि भी तो एकदम अंश जैसा है, शरीर से किशोर और मानसिक रूप से आंशिक विकसित बालक जो ना बोल सकता है,ना किसी का सुख-दुःख समझ सकता है ! बचपन तो जैसे-तैसे सहानुभूति और प्यार से बीत गया पर अब युवा हो रहे मणि को बिस्तर गीला करते देख,पेंट की ज़िप मेहमानो के समक्ष ही बंद करवाने की ज़िद और बहुत जोर से गाने सुनना या किसी के सामने आवाज़ करते हुए खाना खाते देख उनकी पत्नी ना सिर्फ झुंझलाती हैं बल्कि शर्मिंदगी भी महसूस करती हैं !भला मणि का इसमें क्या कसूर ? बुद्धि में हो या ना हो,शरीर में होते शारीरिक और हार्मोनलपरिवर्तन को थोड़े ही रोका जा सकता है !
मैं अपने भतीजे अंश की ऐसी दुर्गति होते नहीं देखना चाहती थी ! भाई-भाभी अपने जीते जी अंश की देखभाल करेंगे,पर उनके बाद कौन ?यही एक चिंता सताती थी ! मानती हूँ आज सब ग़मगीन हैं पर यह दुःख वक़्त के साथ कम हो ही जाएगा,पर अंश के मानसिक-विकार का दंश तो आज ख़त्म हुआ,शायद यही मेरे सुकून की वज़ह है।
आज जब मातमपुर्सी के लिए घर गयी भैया के तो पता चला भाभी अस्पताल में हैं,हम उनसे मिलने अस्पताल पहुंचे तब तक भाभी को पुत्ररत्न की प्राप्ति हो चुकी थी !इस बार भाभी ने अपनी गर्भावस्था के विषय में किसी को कानोकान खबर नहीं होने दी थी ! उन्हें भय था कि उनके अंश को जैसे किसी की बुरी नज़र लगी थी वैसे ही अबकी बार उनके “वंश ” को किसी की बुरी नज़र ना लग जाये !
— पूर्णिमा