कविता – नेट पर सेट
नेट पर मैं हमेशा सेट रहती हूँ
पड़ोस में क्या हुआ
नहीं जान पाती हूँ ?
घर में पति और बच्चों को
खाना -पीना भी देर से दे पाती हूँ
अरे बहनों ,
मैं नेट पर हमेशा सेट जो रहती हूँ ।
नहीं करती हूँ दोस्तों रिश्तेदारों से दुआ सलाम !
मगर हाँ , आभासी मित्रों को सुबह – शाम
गुड मार्निग और गुड नाईट का स्टिकर
एक से बढ़ कर एक भेजती हूँ
अरे मोबाइल कंपनी वालों ,
मैं नेट पर हमेशा सेट जो रहती हूँ।
घर में किसी की तबीयत ख़राब हो जाए कोई फर्क नहीं पड़ता
मगर फंतासी दुनिया के अनजाने चेहरों की तबीयत खराब जान
धड़ाधड़ दुआओं की पोटली
उसके पहलू में उड़ेल देती हूँ
अरे भाइयों , मैं नेट पर हमेशा सेट जो रहती हूँ ।
पड़ोसी या रिश्तेदारों की
कभी आर्थिक मदद नहीं करती हूँ
लेकिन आभासी मित्र – मित्राणी
झूठे प्रपंच रचते हैं
और मैं दानवीर बन जाती हूँ
बाद में ब्लाक होने की खबर से
ठगे जाने का शोक मनाती हूँ
अरे दुनिया वालों ,
मैं नेट पर हमेशा सेट जो रहती हूँ।
— नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’