ग़ज़ल : उल्फत चली गई
माँ-बाप क्या चले गये बरकत चली गई
नफरत चिता में जल गई, उल्फत चली गई
मिलता है जो भी पूछने लगता है क्या हुआ
कैसे कहें कि दिल से मुरव्वत चली गई
बजते नहीं हैं इन दिनों घुँघरू खयाल के
शैतानियत चली गई हरकत चली गई
काजल कई दिनों से लगाया नहीं गया
आईना देखने की भी आदत चली गई
मन्दिर नहीं गये इधर गााये नहीं भजन
खुशबू के साथ-साथ इबादत चली गई
कदमों में किसके बोलिए धरता कमाई अब
‘गंगा’ में डुबकियों की भी हसरत चली गई
‘भगवान’ जानता है मैं कितना अशान्त हूँ
जीवन से मेरे ‘शान्त’ शराफत चली गई
सहता हूँ जुल्म बोझ उठाता हूँ सब्र का
मेरे लहू में थी जो बगावत चली गई
— देवकी नन्दन ‘शान्त’
(मेरी माँ का नाम ‘गंगा’ था और पिता का नाम ‘भगवान’ था)