ग़ज़ल
हसरत है बस अब मैं तेरा नाम लिखूँ दीवारो पे
दिल करता है खूँ से कुछ पैगाम लिखूँ दीवारो पे
तू क्या जाने मेरी चाहत दीवानो सी होती है
दोपहरी के मौसम में भी शाम लिखूँ दीवारों पे
कब सोती हूँ कब जगती हूँ सारे दिन क्या करती हूँ
सोच रही हूँ अपने सारे काम लिखूँ दीवारों पे
कितनी रुसवा होती हूँ मै तेरी प्यार मुहब्बत में
तू अच्छा है पर तुझको बदनाम लिखूँ दीवारों पे
चूमेगा जब इन लफ्जो को और नशा चढ जाएगा
जब भी आँखों से अपनी मै जाम लिखूँ दीवारों पे
देख इशारो पे चलती है मेरे ही सारी दुनिया,
सो जाते है तारे जब आराम लिखूँ दीवारों पे
प्यार मुहब्बत होती है अनमोल ‘लकी’ भी कहता है
मैं वो पगली हूँ जो इसके दाम लिखूँ दीवारों पे
— लकी निमेष
ग्रैटर नौएडा