कुंडलिया
पलड़ा जब समतल हुआ, न्याय तराजू तोल
पहले अपने आप को, फिर दूजे को बोल
फिर दूजे को बोल, खोल रे बंद किवाड़ी
उछल न जाए देख, छुपी है चतुर बिलाड़ी
कह गौतम कविराय, झपट्टा मारे तगड़ा
कर लो मनन विचार, झुके न न्याय का पलड़ा॥
— महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी