विरह
प्रियतम तुम आयी थी, जीवन को महकाने,
सूनी आँखो में फिर से नये सपने सजाने।
वह बसन्त की स्वर्णिम बेला,वह मादक अँगडाई,
दरवाजे पर घनी छाँव में , वह झूला पुरवाई।
कुछ हरषाती तुम जब मुस्कुराती, भाव प्रसून चढ़ाती,
इस अन्जाने की चाहत में, शोख अदा बलखाती।
परिणय की उस आकाँक्षा को, ठण्डक लगी जगाने,
आओ प्रियतम आओ आओ, नैनो मे बस जाओ।
छुप- छुप कर मुझको देखा करती हो, कैसा होगा मेरा।
दिन जाता वह रात न जाती, लगता दूर सबेरा ।
बिछुड डाल से पत्ता भाऱी,झोंसे उड जाता,
कभी डगर में कभी नगर में, कैसा ठोकर खाता।
जब तक है अस्तित्व बेचारा, फिरता मारा-मारा,
ऐसी ही कुछ दशा हमारी,ये है करूण कथा हमारी ।
— कालिका प्रसाद सेमवाल