दिल्ली ! सत्ता का मोह त्याग !
मुद्दा इससे गंभीर बने ,पूरा भारत कश्मीर बने ।
दिल्ली ! सत्ता का मोह त्याग !
है वक्त अभी तू जाग! ,जाग !
मेरी मानो तो अब साँपो को दूध पिलाना बंद करो !
व्यवसाय,मौत,जिन लोगों का,अब उन्हे जिलाना बंद करो !
पागल कुत्ते को कभी प्रेम से नही मना पाओगे तुम ।
नदिया के दूर किनारो को क्या कभी मिला पाओगे तुम ?
कुछ मुद्दे सुलझाने के चक्कर मे फिर अधिक उलझते हैं।
जो भूत लात के होते हैं ,वह बातें नहीं समझते हैं ।
इन राष्ट्रद्रोहियों के कारण तुम कितने शीश कटाओगे ?
कब तक अपनों की लाशों पर तुम राग शांति का गाओगे ?
फिर माँग उठे बटवारें की ,फिर से कोई प्राचीर बने ।
दिल्ली!सत्ता का मोह त्याग !
है वक्त अभी तू जाग!जाग!
कब तक सत्ता के चक्कर में, चूड़ियाँ पहनकर बैठोगे ?
ज्यादा मीठा बनना चाहा तो ,निजहत्या कर बैठोगे !
जनता का रक्त चूस करके,मत बन कुर्सियों के खटमल !
दिल्ली को भी हिलना होगा,गर सीमा पर होगी हलचल।
शासन तलवारों से चलता ,बस जीभ चलाना बंद करो !
यह रोज रोज दुख का,निंदा का,राग सुनाना बंद करो !
हो गई शांति अतिशय गरिष्ठ , इन दुष्टों का प्रतिकार करो!
कोई निर्णय लेकर कठोर ,इन असुरों का संहार करो!
सत्ता के लोलुप लोगों में, कोई तो अर्जुन वीर बने ।
दिल्ली! सत्ता का मोह त्याग !
है वक्त अभी तू जाग! जाग !
सीमा पर जिसका लाल मरा,उस माँ की करुण पुकार सुनो
उजड़ा जिस नारी का सुहाग,उसके उर की चित्कार सुनो।
उन बच्चो की सोचों! जिनके सिर बाप का साया नही रहा।
उस बाप की सोचों!जिसका अपने तन का जाया नही रहा।
अब शांति अहिंसा छोड़ो ,हिंसा के पथ पर चलना होगा ।
कुछ छिपे हुए बैठे,श्रृगाल, केसरी तुम्हे बनना होगा ।
प्रस्ताव शांति का बहुत हुआ,अब इन नीचों का दमन करो।
अब क्षमादान की राह त्याग,प्रतिशोध-पंथ ,का चयन करो।
यह रोग न हो जाये असाध्य,फिर पर्वत जैसी पीर बने !
दिल्ली! सत्ता का मोह त्याग!
है वक्त अभी तू जाग जाग !
—————————–डॉ. दिवाकर दत्त त्रिपाठी