“ग़ज़ल/गीतिका”
काफ़िया- आरों, रदीफ़- पर
जी करता है लिख डालूँ कुछ नए बंद बीमारों पर
जिसने जीवन दिया पिता बन उनके प्रतिउपकारों पर
अपना पूरा जीवन देकर बदले में इक दिन पाया
पिता दिवस पर लाख बधाई देते किन त्योहारों पर।।
रोज रोज का नयन चूमना किसको याद रहा भाई
फटी बिवाई पाँव पसारे आँसूँ बहते प्रतिकारों पर।।
दूर हुए बेटा बेटी जब अपनी बगिया उग आयी
सिकुड़े नयन राह उठ तकते पालन के अधिकारों पर।।
देखो टंगी हुई तस्वीरें बिना हार और फूल लिए
मानों लिखना चाह रहीं हैं वर्षी तारीख दीवारों पर।।
उमड़ पड़ी हैं दिल दहलाती आभासी छवि प्यार की
श्राद्ध पर्व पर उड़ते कौवा जल तर्पण तप संस्कारो पर।।
मातृ पितृ को एक दिवस के बंधन में मत गौतम बाँध
सुबह शाम का संध्या वंदन आरति कर एतवारों पर।।
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी