क्या बिना ईश्वर सृष्टि का बनना व संचालन सम्भव है?
ओ३म्
हम जिस सृष्टि में रहते हैं वह विशाल ब्रह्माण्ड का एक सौर्य-मण्डल है। इस सौर्यमण्डल में मुख्यतः एक सूर्य, हमारी पृथिवी और ऐसे व इससे भी बड़े अनेक ग्रह तथा हमारी पृथिवी का एक चन्द्र व अन्य ग्रहों के चन्द्र के समान अनेक छोटे व बड़े उपग्रह हैं। वैदिक गणना के अनुसार यह सृष्टि विगत लगभग 1.96 अरब वर्षों से विद्यमान है। सूर्य के बारे में वैज्ञानिक जानकारी के अनुसार यह अपनी परिधि पर घूम रहा है। इसका परिमाण वा भार 1.989×1030 किग्रा. है। सूर्य गोलाकार है तथा इसकी त्रिज्या 696,000 किलोमीटर है। हमारे इस सूर्य में हमारी लगभग 109 पृथिव्यां समा सकती हैं। सूर्य की परिधि लगभग 43,66,813 किमी. है। इसी प्रकार से पृथिवी व चन्द्र के बारे में जो जानकारी उपलब्ध है उससे यह अनुमान होता है कि यह महद् कार्य बिना कर्ता व रचयिता के सम्भव नहीं है। हमें यदि अपने घर में आटे की रोटी बनानी है और इसके लिये सभी सामग्री एक स्थान पर सुलभ है तब भी बिना किसी चेतन कर्ता के यह स्वमेव बन नहीं सकती। चेतन कर्ता हो तो थोड़े के समय में रोटी बन जाती है। अतः यह सृष्टि जिसमें असंख्य सूर्य, पृथिव्या, चन्द्र व तारें आदि हैं, उनके स्वमेव बनने का विचार वा मान्यता कपोल कल्पित ही कही जा सकती है। यह मान्यता वैज्ञानिक तो कदापि नहीं हो सकती। यदि कोई मानता है तो यह उसकी बुद्धि का दोष है। सूर्य और पृथिवि के मध्य दूरी 149,600,000 किमी. है। यह दूरी इस दूरी से कम वा अधिक होती तो हमारे सूर्य व पृथिवी का अस्तित्व सम्भव न होता। पृथिवी सूर्य के समक्ष जिस कोण पर झुकी हुई है वह न्यूनाधिक होता तो पृथिवी पर जो ऋुतुएं होती हैं वह सम्भव न होती। ऐसे अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं जो यह सिद्ध करते हैं यह सृष्टि व ब्रह्माण्ड स्वमेव नहीं बना है अपितु किसी सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान, चेतन व आनन्दस्वरूप सत्ता जिसे ईश्वर व परमात्मा का नाम दिया जाता है, उसकी कृति है। वेदों में इसके लिए कहा है ‘पश्य देवस्य काव्यं न ममार न जीर्यति।’ अर्थात् हे मनुष्य! तू ईश्वर की बनाई सृष्टि को देख, जो न कभी पुरानी होती है और न नष्ट होती है अर्थात् यह प्रवाह से अनादि व अनन्त स्वरूप वाली है।
अतः प्रश्न उत्पन्न होता है कि जिस ईश्वर ने इस सृष्टि की रचना की है, उस ईश्वर का स्वरूप कैसा है? इसका उत्तर ऋषि दयानन्द ने आर्यसमाज के दूसरे नियम में दिया है जिसे हम यहां प्रस्तुत कर रहे हैं। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरुप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है। इसमें हम यह भी जोड़ सकते हैं ईश्वर इस सृष्टि को इसके उपादान कारण सत, रज व तम गुणों वाली सूक्ष्म प्रकृति से बनाता है। यह प्रकृति भी ईश्वर व जीव के समान अनादि व नित्य है। ईश्वर सृष्टि की रचना अपनी सामर्थ्य को प्रकट करने और असंख्य जीवों को उनके पूर्व जन्मों के कर्मों का सुख व दुःख रूपी फल देने के लिए करता है। यदि वह ऐसा न करें तो जीवात्मायें मनुष्य आदि जन्म लेकर जो सुख भोगती हैं वह उससे वंचित हो जायें। मनुष्य चेतन प्राणी है। वह मनुष्य जन्म लेकर ज्ञान प्राप्त करता है और अपने ज्ञान के अनुसार कार्य करता है। ईश्वर को भी सृष्टि को रचने, उसका संचालन व पालन करने का ज्ञान एवं अनुभव है, अतः उसका सृष्टि की रचना करना व उसका संचालन व पालन उसका स्वाभाविक गुण, कर्म व स्वभाव है।
प्रश्न हो सकता है कि ईश्वर इतना विशाल संसार कैसे बनाता है? इसका उत्तर है कि ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, धार्मिक स्वभाव वाला, अनादि व अमर सत्ता है। यह सृष्टि प्रवाह से अनादि है। अर्थात इसकी उत्पत्ति, पालन व प्रलय आदि अनादि काल से होता आ रहा है और भविष्य में भी होता रहेगा। सृष्टि से पूर्व प्रलय होती है और प्रलय के बाद ईश्वर सृष्टि करता है। यह चक्र सदा सर्वदा चलता रहता है। यह सृष्टि पहली बार नहीं बनी है। इससे पूर्व अनन्त बार बन चुकी है। आगे भी यही क्रम अनन्त काल तक जारी रहेगा। ईश्वर द्वारा सृष्टि की उत्पत्ति के लिए ऋग्वेद के दसवें मण्डल का नासदीय सूक्त पढ़ना चाहिये। उससे सृष्टि की रचना पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। यह भी जानने योग्य है कि चेतन तत्व ज्ञान व कर्म दो प्रकार की शक्तियों वा गुणों से युक्त होता है। संसार में ईश्वर व जीव दो प्रकार की चेतन सत्तायें हैं। यह दोनों अनादि व नित्य हैं। इनका नाश कभी नहीं होगा। ईश्वर संख्या में एक है और जीव संख्या में अनन्त हैं। अनन्त संख्या जीवों की अल्पज्ञता के कारण कही जाती है जबकि ईश्वर के ज्ञान में जीव असंख्य होते हुए भी सीमित हैं वा उनकी गणना निश्चित है।
यदि ईश्वर है तो उसकी विद्यमानता का कोई प्रमाण भी होना चाहिये। इसे हम ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश में दिये गये उदाहरण से समझ सकते हैं। ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में कहा है कि मनुष्य जब शुभ व परोपकार आदि के कर्म करता है तो उसे ऐसे कार्य करने में आनन्द, उत्साह व प्रसन्नता का अनुभव होता है। वह इन कामों को निर्भय होकर करता है। इसके विपरीत वह जब चोरी, जारी व बुरा काम करता है तो उसकी आत्मा में भय, शंका व लज्जा उत्पन्न होती है। इसका कारण क्या है? ऋषि दयानन्द बताते हैं कि आत्मा में इन अनुभूतियों का कारण आत्मा के भीतर ईश्वर की उपस्थिति को सिद्ध करता है। ईश्वर अच्छे काम करने पर जीवात्मा को प्रोत्साहित कर उसे प्रसन्नता देता है और बुरा काम करने पर उसे रोकता है और इसके लिए वह उसकी आत्मा में भय, शंका व लज्जा को उत्पन्न करता है। यह ईश्वर के अस्तित्व व उसका आत्मा के भीतर विद्यमान होना सिद्ध करता है। यदि ईश्वर न होता तो आत्मा में यह दो विपरीत प्रकार के भाव उत्पन्न न होते।
यदि सृष्टि को ईश्वर ने बनाया है तो फिर मनुष्य आदि सभी प्राणियों को भी ईश्वर ने अपने विधान के अनुसार अपनी व्यवस्था से ही बनाया वा उत्पन्न किया है। यह कथन वा मान्यता तर्क व युक्तिसंगत होने से सत्य है। ईश्वर ही सृष्टि व इसमें सभी प्राणियों की सृष्टि करता है। वह ऐसा क्यों करता है? इसका उत्तर है कि वह जीवात्माओं को उनके पूर्व जन्मों के कर्मों का फल देने के लिए ऐसा करता है। सृष्टि की उत्पत्ति का मुख्य कारण भी जीवों को उनके पूर्व जन्मों के कर्मों के फल वा सुख-दुःखादि प्रदान करना ही है। ईश्वर चेतन सत्ता है। उसने सृष्टि को बनाया व प्राणियों को उत्पन्न किया है। यदि इस मान्यता को स्वीकार कर लिया जाये तो फिर यह प्रश्न भी उपस्थित होता है कि ईश्वर को सृष्टि के आरम्भ में ही मनुष्यों को बोलने के लिए भाषा और उसके कर्तव्य व अकर्तव्यों सहित इस सृष्टि के प्रमुख रहस्यों का ज्ञान भी अवश्य देना चिहये था। यह शंका व प्रश्न उचित है। ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ में संस्कृत भाषा का ज्ञान दिया और इसी भाषा में सृष्टि एवं मनुष्य के कर्तव्यों का ज्ञान चार ऋषियों के माध्यम से चार वेदों का ज्ञान देकर कराया है। ऋषियों की कृपा से सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर द्वारा दिया गया ज्ञान आज भी उपलब्ध व सुरक्षित है। चार वेद आज न केवल मूल संहिता रूप में अपितु ईश्वर प्रदत्त चार वेदों के मन्त्रों के हिन्दी व अन्य भाषाओं मे अर्थों सहित विद्यमान हैं। वर्तमान में इसका श्रेय ऋषि दयानन्द और उनके अनुचर विद्वानों को है। वेद में सृष्टि विषयक ज्ञान तो है ही साथ में मनुष्य के कर्तव्य कर्मों का भी व्यापक रूप से ज्ञान है। इससे ईश्वर का होना व उसका सृष्टि रचना करना व वेदों का ज्ञान देना सिद्ध होता है।
ईश्वर के मुख्य कार्यों पर विचार करें तो यह ज्ञात होता है कि ईश्वर सृष्टि की रचना करता है, उसका पालन करता है तथा सृष्टि की अवधि पूरी होने पर प्रलय करता है। वह अमैथुनी सृष्टि कर इस प्राणी सृष्टि का आरम्भ करता है और मनुष्यों को वेदों का ज्ञान देता है। ईश्वर सभी प्राणियों को उनके किये हुए कर्मों का फल देता है। मनुष्य का कोई भी कर्म ऐसा नहीं होता जिसका उसे ईश्वर वा उसकी व्यवस्था से ठीक ठीक फल प्राप्त न हो। मनुष्य का जन्म व उसकी मृत्यु सहित अन्य सभी प्राणियों के जीवन व मरण की व्यवस्था भी परमात्मा के द्वारा ही होती है। जीवात्मा सत्य, अनादि, अनुत्पन्न, नित्य व अविनाशी है। अतः इसके अतीत में असंख्य बार जन्म व भविष्य में भी जन्म व मृत्यु का होना तर्क से सिद्ध है। यह जन्म-मृत्यु-पुनर्जन्म उसे ईश्वर से ही प्राप्त होती आ रहीं है और भविष्य में होंगी। यदि हम ईश्वर का साक्षात् करना चाहें तो हम वेद, वैदिक ग्रन्थों के स्वाध्याय, वेद के विद्वानों के प्रवचन व विचार सुनकर कर सकते हैं। योग दर्शन की शरण में जाकर योगाभ्यास कर समाधि अवस्था को प्राप्त कर हम सृष्टिकर्ता ईश्वर का साक्षात्कार वा प्रत्यक्ष भी कर सकते हैं। इस प्रयोजन को सिद्ध करने के लिए ही ऋषि दयानन्द जी ने ‘सन्ध्या’ की पुस्तक रची है। अनुमान है कि वह स्वंय भी इसी विधि से सन्ध्या करते रहे होंगे और इससे ही उन्होंने ईश्वर का साक्षात्कार भी किया था। यह भी जान लें कि एक बार ईश्वर का साक्षात्कार हो जाता है तो वह मृत्यु पर्यन्त बार बार किया जा सकता है। हमारे योगी व ऋषि ऐसा करते रहे हैं। यदि हम योग व सद्कर्म किसी कारण से करना छोड़ देते है तो फिर ईश्वर का प्रत्यक्ष होना बन्द हो सकता है।
ईश्वर के विषय में हमने जो विचार किया है वह ईश्वर के होने पर ही सम्भव है। यदि ईश्वर न होता तो उसका विचार कैसे होता? अर्थात् नहीं हो सकता था। यदि ईश्वर न होता तो न सृष्टि होती, न जीवों का जन्म व मरण होता और न हम सुख भोग सकते थे। हम सब वस्तुतः ईश्वर के ऋणी हैं। ईश्वर का सत्यस्वरूप व उपासना की विधि वेद व आर्यसमाज से ही प्राप्त होती है। अतः सभी मनुष्यों को वेद और आर्यसमाज की शरण में आकर अपने जीवन का कल्याण कर इस जीवन में अभ्युदय और मृत्य होने पर निःश्रेयस को प्राप्त करना चाहिये। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य