अकड़
अकड़ आदमी-आदमी में भरी है
किसी में धन की तो
किसी में बल की /
किसी में सुन्दरता की /
किसी में ज्ञान की /
किसी में पद की /
किसी में तन की…
लेकिन सच तो यह है
अकड़ सिर्फ मुर्दों में होती है
ये जिंदा आदमी मुर्दों की होड़ कब से करने लगा
झूठा अहंकार भरने लगा |
छोड़ दे ये झूठी अकड़
धर्म की /
जाति की /
पंत की /
गोरे की /
काले की /
लम्बे की /
ठिगने की…
अकड़ तो एक न एक दिन आनी ही है
वो भी बिन बुलाए
तो क्यों अभी से पाल बैठा है
जिंदा है तब तक तो इससे दूर रह…
— मुकेश कुमार ऋषि वर्मा