कविता

कविता – अनुत्तरित ईश्वर

धरती की कोख में , उपजता है अनाज,

प्राकृतिक आपदाओं, पानी, धूप, हवा,
और वन्य जीवों से, अपने आप को बचाकर,
अर्पण कर देता है, इन्सानी उदर को,
स्वतः मिटकर भी वह,पूर्णता पा लेता है,
लेकिन हम … अहम की चिंगारी से ,
भस्म करते हैं भावनाएं, और फिर …
ताक पर रखते हैं सारी संवेदनाएं ,
और तोड़ते हैं दिल,किसी मजलूम का,
बस, नहीं तोड़ पाते हैं,इच्छाओं के गट्ठर,
और उन्हें पा लेने की सुप्त लालसा,
लगता है अपने होने पर ,
हम स्वयं लगाते हैं प्रश्नचिन्ह,
अनुत्तरित रह जाता है ईश्वर,
अपनी ही रचाई सृष्टि से..।
कार्तिकेय त्रिपाठी 

कार्तिकेय त्रिपाठी

गांधीनगर , इन्दौर (म.प्र.)