संवत् बिसवीं सत्तर का सफल,
बना सौर यान यह मिथुन भ्रमर।
आषाढ़ मास की दुर्तिथि अंदर,
रात्रि मध्य में उठ गया बवंडर।
दिखा जीवन में इक ऐसा मंजर,
बना जिससे सारा पहाड़ समंदर।
देखा सुना न कभी ऐसा मंजर,
बना महातीर्थ पलभर में बंजर।
केदार धाम का गांधी सरोवर,
तड़ित प्रताड़न से मचा प्रलयंकर।
तीर्थ मंदिर तो बच निकला सुंदर,
अन्य भवन सब बन गये खंडहर।
जल सैलाव का यह मलवा भयंकर,
त्राहि-त्राहि शोर चहुं ओर प्रलयंकर।
जन-जीवन को लील गया बवंडर,
केदार गंगा का यह रूप भयंकर।
प्राकृतिकता या दैवदोष यह मंजर,
या मानव कर्म का फल बना खंजर।
घटना पर करना है विचार निरंतर,
क्यों कर हुआ ऐसा जल प्रलयंकर।।
— शम्भु प्रसाद भट्ट “स्नेहिल”