लघुकथा – क्योंकि तुम …तुम हो
शुचि और बसन्त तीन महीने से लिव इन रिलेशन में थे और बहुत खुश भी पर आज … शुचि कुछ भी सुनने के लिये तैयार ही नही। बस बसन्त पर ऐसे बरस रही है जैसे भद्रा। बस आरोप पर आरोप लगाये जा रही थी, “आज शाम जब बॉस ने क्रिसमस पार्टी में मुझसे बदतमीजी की तब तुमने विरोध क्यों नही किया”?
…
“अरे तुम तो वहाँ ऐसे ड्रिंक कर रहे थे जैसे मुझे जानते ही नही”।
“अरे वो बॉस थे शुचि, कोई एरा- गैरा नहीं!”
“तो …दिवाली की शाम भी बॉस ही थे जिनसे तुम उलझ पड़े थे और वो भी सिर्फ इसलिये कि उन्होंने अनुभा को डियर बोला था। यहाँ तक कि तुमने उसके यहाँ रिजाइन तक कर दिया।”
“हाँ, तो?”
“जबकि तुम कहते हो कि अनुभा को प्यार तो क्या पसन्द भी नही करते। और वो कहीं से भी तुम्हारे स्तर की नही।
…
“याद है न कि तुमने ही कहा था मुझे।”
“हाँ हनी, पर…मैं…”
“और मुझे तो इतना प्यार करते हो…इतना चाहते हो कि जान भी दे सकते हो।”
“हाँ यार..चाहता हूँ और मौका आने पर साबित भी कर दूँगा…”
“ओके, फिर आज जब बॉस इतना टची हो रहा था तब…तब तुम्हारा खून क्यों सफेद हो गया था?”
…
“तुम क्यों चुप थे…बोलो…?”
“शुचि,तुम समझो यार बात को…देखो मैं भले अनुभा को प्यार नही करता पर वो पत्नी है मेरी और…”
“और…और मैं?”
…
“बोलो चुप क्यों हो बसन्त…और मैं? मैं कौन हूँ?”
“तुम!… तुम हो…”
— पूजा अग्निहोत्री
सोचने को बाध्य करती लघुकथा !
आज के भारत की तस्वीर ! रचना बहुत अछि लगी .