वो हारी हुई औरत
ख़ुशी के प्रदर्शन में
चमकता चेहरा
हमेशा ही मुस्कराहट में फैलें होंठ
लेकिन आँखों में है समेटे
जाने कितने ही समंदर
वो हारी हुई औरत
जो छली गई है
जन्म के साथ ही
बेटे-बेटी के परिपेक्ष्य में
अपने ही भाई से भेदभाव में
उम्र के कुछ अहम हिस्से में
सहमी-सहमी सी गुजरी है
बचाते हुए खुद को
जाने कितनी ही गलीज़ नज़रों की गलियों से
जीवन के इंद्रधनुषी एहसासात के बहाने
फिर छली गई है
अपने ही अन्धविश्वास से
कदम-कदम पर
किया है भुगतान औरत होने की
बिखरे सपनो में समेटे अपना वजूद
पूर्ण समर्पित तन मन से
तुलसी की तरह ही एक आँगन के मध्य
खुद को स्थापित करने की कोशिश में
कितने ही टुकड़ों में विभाजित हुई है
जाने कब सबकी जरूरतों में
ख़त्म हो गई उसकी हिस्सेदारी
पता ही नहीं चला
आंगन के मध्य से तुलसी चौरा कब
बाहर लॉन में विस्थापित हो गया
ढलते सूरज और बढ़ते स्याही के संग
साए भी अलग हो गए
हर भूमिका को पूरी निष्ठा से निभाने के बाद
आज हाथ आया है *हार*का अनुभव
-सुमन शर्मा