पी रही हूँ
पी ही हूँ
गरल की तरह
कर आत्मा का हनन
बरस रहा है
आज फिर आसमां से
पानी में मिला वो
निकल चिमनियों के मुख से
मिल गया प्राणदायनी के साथ जो
पी रही हूँ
आज अमृत समझ जिसे
बन कैन्सर का सिस्ट
उभरेगा फिर
मेरे किसी अंग में
खत्म होती संवेदनाओं सा
बन जायेगा भार
रिश्तों की तरह
नहीं पीना चाहती
पर मजबूरी है मेरी
न साफ है
अब मोक्षदायनी भी
फैक्टरी से निकले अवशेषों से
पर पी लूंगी अमृत समझ कर ही
मोक्ष तो हर हाल में तय है।
अल्पना हर्ष