काल – चक्र
अपनी बढ़ती स्वार्थवृत्ति पर लगा अंकुश
निश्चित ही तेरा निज तन-मन होगा खुश
संचित – संपत्ति रख सदा पावन – पवित्र
महाकाल की दृष्टि यहाँ – वहाँ सर्वत्र
झूूंठ-कपट-छल कब तक साथ निभायेगा
एक -न- एक दिन यम के चाबुक खायेगा
व्यसन – प्रदर्शन में नित लिप्त रहा
आनी – जानी माया का क्यों दास रहा
यहाँ राजा – जमींदार सब मिट गये
तेरे जैसे कितने आये और चले गये
काल – चक्र से कहीं नहीं कोई बच पाया
सद्ग्रंथो ने मनुज को शुरू से ही समझाया