गीत – हलधर फाँसी पर झूल रहे
हलधर का अधिकार न छीनो, आप जमीं का प्यार न छीनो।
छीनो तुम खुशियाँ बेशक पर , जीने का आधार न छीनो।
सदियों से इनके दामन में , फूल नहीं बस शूल रहे।
हल को ही आज बना शूली हलधर फाँसी पर झूल रहे।
इनको नित हथियार बनाया , सत्ता के गलियारों में।
जिन्दा है अस्तित्व महज कुछ , बेमतलब के नारों में।
वो भूल गये कथनी अपनी , करनी उनकी कुछ और रही।
जिनके कारण ये जीत मिली , चर्चा में उनको ठौर नही।
झूँठे सब वादे थे इनसे , बस भाषण उलजलूल रहे।
हल को ही आज बना शूली, हलधर फाँसी पर झूल रहे।
नित देख फसल को खुश होते,निज मन में स्वप्न सजाते हैैं।
खुशियों का कोई ठौर नहीं वो मन ही मन मुस्काते हैं।
मुन्नी की शादी कर दुगाँ , मुन्ने को बहुत पढाऊंंगा ।
छोडुगाँ झोपड पट्टी को घर अपना एक बनाऊंगा ।
कुदरत के आगे बेवस हो , कैसे नित रोज मलूल रहे।
हल को ही आज बना शूली हलधर फाँसी पर झूूूल रहे।
तपती दोपहरी में जलते , रुकते कब हैं बरसातों में।
हम ओढ़ रजाई सो जाते , ये रोज ठिठुरते रातों में।
मेहनत करते खुद से लड़ते निज खून पसीना एक किया।
खुद की इच्छा को त्याग दिया, हर एक निवाला हमें दिया।
उनके त्याग समर्पण को हम , बोलो कैसे फिर भूल रहे।
हल को ही आज बना शूली , हलधर फाँसी पर झूल रहे।
(मलूल = दु:खी)
— शिव चाहर मयंक