लघुकथा

पवित्र पाप (लघुकथा)

“अरे पिता जी! आप…. इस समय?”
शमशेर अपने पिताजी को रात के 10 बजे अपनी बैरक में देखकर हैरान था। शमशेर दूरदराज़ के एक छोटे-से गाँव का नौजवान है, जो अपनी कड़ी मेहनत से फ़ौज में भर्ती होने में सफ़ल गया था और ट्रेनिंग के लिए आया हुआ था। 7 बहनों में एक भाई और ज्येष्ठ होने के नाते जिम्मेदारीयों का बोझ भी उसी पर है।
“वो घर पर सभी तेरे लिए चिंता करते हैं। तुम्हारी माँ ने जबरदस्ती तुम्हें देखने के लिए भेज दिया।” पिताजी के शब्दों में लाचारी और चेहरे पर थकान भरी भूख साफ़-साफ़ देखी जा सकती थी। शमशेर को मालूम था, पिताजी रास्ते में कुछ नहीं खाते। खाएं भी तो कैसे ग़रीबी ने बड़ी लंबी परीक्षा जो ले रखी है। रेल का किराया भी मुश्किल से जुटाया होगा। शमशेर ने पिताजी के नहाने का पानी रखा और उनके लिए मैस से खाना लेने के लिए चल दिया। वैसे तो इस समय खाना मिलने की कोई उम्मीद नहीं थी फिर भी उसने कौशिश करना उचित समझा।
“अरे रामेश्वर जी! खाना बचा हुआ है क्या?”
“खाने के समय क्यों नहीं आए? अब तो सब खत्म हो गया है।”
“नहीं नहीं मैं तो टाइम पर खा गया था। वो तो अभी-अभी मेरे पिताजी आ गए। इसलिय देखने चला आया।”
“तुम्हारे पिताजी आए हैं….। ठहरो देखता हूँ कुछ खाने को मिल गया तो।…. अरे शमशेर थोड़ा सा मीट और चावल बचे हुए हैं।”
“मीट?…. पर पिताजी तो शाकाहारी हैं।”
“देख भाई मेरे पास जो बचा है वही है। नया बनाना मेरे बसकी बात नहीं सब बर्तन-भांडे धो-मांज चुका हूं। सुबह भी जल्दी उठना है। जल्दी से बताओ क्या करूँ।”
शमशेर की समझ मे नहीं आ रहा था कि वह क्या करे? पिताजी मांसाहारी नहीं हैं, लेकिन पिताजी को भूखा भी नहीं सुला सकता था। थोड़ा विचारने के बाद शमशेर ने रामेश्वर से कहा “एक थाली में चावल डालकर उसपर मीट की तरी इस तरह डालना कि उसमें मीट का कोई टुकड़ा न आने पाए। और हाँ इस बारे में किसी को कुछ न कहना।” रामेश्वर ने एक थाली में चावल डाले और उनपर मीट की तरी बड़ी सावधानी से डालकर शमशेर को दे दिया। शमशेर अब संतुष्ट था कि पिताजी को भूखे नहीं सोना पड़ेगा, लेकिन मन में भय भी था कहीं ऐसा करके उसने कोई पाप तो नहीं कर दिया।

विजय ‘विभोर’

विजय 'विभोर'

मूल नाम - विजय बाल्याण मोबाइल 9017121323, 9254121323 e-mail : [email protected]